पूनम नेगी
वैदिक मनीषियों के अनुसार माघ मास यह ऋतु पर्व लौकिक जीवन को देवजीवन की ओर मोड़कर मानव समाज को अपने अंतर में संयम व त्याग के दिव्य भाव जगाने की प्रेरणा देता है। हिंदू पंचांग के ग्यारहवें महीने माघ का स्रान पर्व समूचे देश में रोचक परंपराओं के साथ श्रद्धाभाव से मनाया जाता है। इनमें आध्यात्मिकता के साथ लोकतत्वों की जीवंतता व उल्लास भी है तथा प्रकृति के प्रति आदरभाव और लोकरंजन की गहन भावना भी।
वैदिक चिंतन कहता है कि हम सबको सविता देवता को नमन और उनकी आराधना इसलिए करनी चाहिए क्योंकि वे समूची प्रकृति का केंद्र हैं। हम धरतीवासियों को जीवन व शक्तियां उन्हीं से ही प्राप्त होती हैं। वे हमारे सभी शुभ व अशुभ कर्मों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। माघ मकर गत रवि जब होई, तीरथ-पतिहि आव सब कोई। गोस्वामी तुलसीदास जी के इन शब्दों में इस माह में सूर्य नारायण अपनी गति उत्तरायण की ओर कर यह संकेत देते हैं कि अब अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ने का समय आ गया है।
पुराणकार कहते हैं कि जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी स्थान शुभ हो जाते हैं। खरमास (पौष माह) में रुके हुए मंगल कार्य पुन: शुरू हो जाते हैं। यह ऋतु परिवर्तन हमें प्रबोधित करता है कि हम सब भी जड़ता व आलस्य त्याग कर नए सकारात्मक विचारों को ग्रहण करें और काम-क्रोध, मद-लोभ आदि दूषित विचारों से अपने अंतस को मुक्त कर नई जीवन ऊर्जा से कर्मपथ पर गतिमान हों।
प्रमुख स्नान पर्व
वैसे तो इस आलोक मास की प्रत्येक तिथि पवित्र मानी जाती है लेकिन इसमें मकर संक्रांति, संकष्टी चतुर्थी, माघी पूर्णिमा, षट्तिला एकादशी, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी, जया एकादशी और महाशिवरात्रि इसके प्रमुख स्नान पर्व होते हैं। प्रयाग के त्रिवेणी संगम का माघ मेला विश्व का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। संगम तट पर की जाने वाली कल्पवास की संयमित साधना और संत मनीषियों के उद्बोधन अध्यात्म पथ के साधकों को नया आत्मबोध देते हैं।
इस अवसर पर जन मन के भीतर उमड़ने वाले सात्विक भाव न सिर्फ देश की सांस्कृतिक चेतना को परिपुष्ट करते हैं वरन इस पर्व पर उठने वाली उल्लास एवं सात्विक भावनाओं की तरंगें राष्ट्र की सामाजिक संघबद्धता को भी मजबूती से सदृढ़ करती हैं। इसी तरह माघ महीने में गोरखनाथ मंदिर में लगने वाला एक महीने का खिचड़ी मेला तो दुनियाभर में विख्यात है।
कल्पवास का विशेष महत्त्व
हमारी सनातन संस्कृति में प्रयागराज में माघ मास के कल्पवास का विशेष महत्त्व माना गया है। वैदिक मनीषियों के अनुसार कल्पवास के तीन प्रमुख नियम हैं- ध्यान-तप-साधना, होम (हवन) व दान। पुराण ग्रंथों में इस कल्पवास का विधान विशेष रूप से माघकाल में तीर्थराज प्रयाग के संगम के तट पर किए जाने का उल्लेख मिलता है। संगम नगरी में किया जाने वाला यह कल्पवास हमारी वेदकालीन अरण्य संस्कृति की अमूल्य आध्यात्मिक देन है।
इसका विधान हजारों वर्षों से निर्बाध रूप से चला आ रहा है। जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था तब यह भूमि ऋ षियों की तपोस्थली थी। प्रयाग में गंगा-यमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋ षि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋ षियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी। वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलते हैं कि प्राचीन काल में हमारे ऋ षि-मनीषी इस महीने में विभिन्न उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाएं करते थे। यह परंपरा रामायण एवं महाभारत काल में भी प्रचलित थी।
रामायणकाल में तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम एवं साधना आरण्यक था, जहां समूचे आर्यावर्त के जिज्ञासु साधक एकत्रित हो संगमतट पर एक मास का कल्पवास करते थे। आज भी माघ मास में प्रयाग की पुण्यभूमि में होने वाले आध्यात्मिक समागम में बड़ी संख्या में लोग कल्पवास के लिए जुटते हैं।
इस दौरान जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आया है, वह पर्ण कुटी में रहता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है तथा मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभावपूर्ण रहा जाता है। पद्म पुराण में कहा गया है संगम तट पर वास करने वाले को कल्पवासी को ब्रह्मचारी, सदाचारी, शान्त मन वाला तथा जितेन्द्रिय होना चाहिए। यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है।