“ये दुनिया दो रंगी है, एक तरफ रेशम ओढ़े, एक तरफ से नंगी है।”
साहिर लुधियानवी की ये पंक्तियां ऊपर दिख रहीं दो तस्वीरों पर सटीक बैठती हैं। ये हमारे देश के सिस्टम के दो पहलू हैं। देश की सरकारों के दोहरे चरित्र की तस्वीर है। देश के कायदे-कानून और विधान की तस्वीर है। अमीर और गरीब में बांटने वाले सामाजिक ताने-बाने की तस्वीर है। देश के अंदर ही इंडिया और भारत की तस्वीर है।
एक तरफ समतल, सपाट, चिकने रन-वे पर सरकारी एयर इंडिया के स्पेशल विमान से कोरोना के फुलप्रूफ कवच के बीच उतरी सात समंदर पार रह रहे प्रवासी भारतीयों की तस्वीरें हैं तो दूसरी तरफ बैसाख और जेठ की तपती दोपहरी में 43 डिग्री के तापमान में आग उगलती सड़कों पर भूखे-प्यासे, नंगे पैर, फटेहाल हालत में शहरों की वीरानगी से दूर अपने-अपने गांवों को बाल-बच्चों के साथ दौड़ते जा रहे लोगों की तस्वीरें हैं। इन्हें ना कोरोना का भय है, न सोशल डिस्टेंसिंग के उल्लंघन का खतरा क्योंकि कोई तीन दिनों से भूखा है तो कोई एक अदद बोतल पानी को प्यासा।
कोरोना और लॉकडाउन की वजह से दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे शहरों में फंस गए लोगों के पास रोजगार खत्म हो चुके हैं। उनकी जमा पूंजी भी खत्म हो चुकी है। जब कोई चारा नहीं बचा तो कोई साइकिल से तो कोई रिक्शा से ही अपने गांवों की ओर चल पड़ा। एक बड़ा तबका माथे पर पोटली लिए पैदल ही चला जा रहा है। पंजाब से पलायन कर वापस लौट रहे मजदूरों की कहानी दर्दनाक है। पहले तो पुलिस ने खदेड़ा और जब आगे की ओर बढ़े तो उनके चप्पलों ने जवाब दे दिया। वे घिस गईं, तब मजदूरों ने पानी के प्लास्टिक बोतल को ही चप्पल बना लिया।

बेंगलूरु में रहने वाला एक शख्स 90 साल की बुजुर्ग मां को अपनी साइकिल पर ही बैठा कर राजस्थान के अपने गांव को ओर चल पड़ा। आगे बेटी को बैठाया और पीछे मां को। दोनों को ज्यादा परेशानी न हो, इसलिए रुक-रुककर साइकिल चला रहे। अभी 34 दिन हो गए लगातार साइकिल चलाते हुए लेकिन सैकड़ों किलोमीटर का लंबा सफर बाकी है। इसी तरह अपने घर आने का सपना मुंबई के उन 16 मजदूरों ने भी देखा था जो रेल पटरी पर मालगाड़ी रूपी काल के गाल में समा गए।
शहरों से गांवों की ओर बदहवास जा रहे प्रवासी मजदूर पूछने पर फफक पड़ते हैं। कोई तीन दिन से भूखा-प्यासा है तो किसी के पास जेब में चवन्नी तक नहीं है। अजमेर में कुछ लोग राज्य सरकार की बसों पर जा चढ़े लेकिन अफसरों ने उसे ये कहते हुए उतार दिया कि ये बसें यूपी के लोगों के लिए है बिहार के लोगों के लिए नहीं। तब कामगार युवकों का जत्था साइकिल से ही अजमेर से बिहार के लिए निकल पड़ा। कोई पोलियोग्रस्त दिव्यांग 13 दिन तक एक हाथ से ही रिक्शा चलाकर दिल्ली से बिहार जा पहुंचा। ये लोग तो खुश नसीब हैं, जो कष्ट, दुख झेलकर अपने घरों को पहुंच गए लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो या तो रास्ते में ट्रक की भेंट चढ़ गए या पैदल चलते-चलते दम तोड़ दिया।
सरकार ने प्रवासी मजदूरों के लिए ट्रेनें चलाई हैं लेकिन अभी तक मात्र छह से सात लाख प्रवासी ही अपने घरों को लौट सके हैं, जबकि इनकी संख्या 25-30 लाख से भी ज्यादा है। सरकारों के पास भी इसका कोई आंकड़ा नहीं है। शहरों में इनके लिए बनए गए शेल्टर होम की बदइंतजामी, खाने में कीड़े मिलने और शौचालय तक की व्यवस्था नहीं होने की कहानी अब पुरानी हो चुकी है।
सरकार के मंत्री दावे करते हैं कि देश में सबकुछ सामान्य है लेकिन इन मजदूरों की आंखों में छलकते आंसू और उनकी लबों से निकले एक-एक अल्फाज़ उनके अंतहीन दर्द का वास्तविक मंजर बयां कर रहे हैं। इनकी मदद के लिए बनाए गए ऑनलाइन पोर्टल भी काम नहीं कर रहे जबकि विदेशों से भारतीय नागरिकों को वापस लाने के लिए सरकारें बड़ी मुस्तैदी से काम कर रही हैं।
पिछले तीन दिनों से बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय वंदे भारत मिशन के तहत वतन लौट रहे हैं। इस मिशन पर केंद्रीय मंत्री से लेकर विदेशों में भारतीय राजदूतों तक की तैनाती की गई है लेकिन सड़कों पर फटेहाल जा रहे बड़े मेहनतकश वर्ग को अभी मीलों सफर का और सरकारी रहम का इंतजार बाकी है।