संसद से राहुल गांधी के अयोग्य साबित होने के बाद अब कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर पूरी तरह सक्रिय दिखाई दे रही है। लेकिन दूसरी तरफ भाजपा कांग्रेस नेता के मोदी सरनेम को लेकर दिए गए बयान को ओबीसी का अपमान बताकर कांग्रेस को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। भाजपा को लगता है कि जब भी पिछड़े वर्गों की बात आती है तो पार्टी का पलड़ा हर बार भारी होता है।
भारत में आपातकाल के बाद की राजनीति का इतिहास ओबीसी समर्थन की बात आने पर सबसे पुरानी पार्टी के नदारद होने के उदाहरणों से भरा हुआ है। ओबीसी के सवाल पर कांग्रेस आजादी के बाद से ही संघर्ष करती दिखाई दी है।
आजादी के बाद के सालों ही से पिछड़े वर्गों ने आरक्षण की मांग शुरू कर दी थी साथ ही राजनीतिक प्रतिनिधित्व की तर्ज पर भी कोटे की मांग भी की गयी। 1953 में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने काका कालेलकर के तहत पहले ओबीसी आयोग का गठन किया था। लेकिन 1955 में पेश की गयी रिपोर्ट लंबे समय तक धूल फांकती रही।
साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने ओबीसी वर्ग को लीड किया, उनके निधन के बाद चौधरी चरण सिंह इस वर्ग के नेता के रूप में उभरे। अप्रैल 1977 में एन डी तिवारी के नेतृत्व वाली यूपी में कांग्रेस सरकार ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी। यकीनन यह देश में इस तरह का पहला कदम था।
आपातकाल के बाद सत्ता में आई केंद्र की मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने एक सप्ताह के भीतर ही तिवारी सरकार को बर्खास्त कर दिया था। नतीजतन हुआ यह कि ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण को लागू करने वाली सरकार राम नरेश यादव के नेतृत्व वाली जनता पार्टी हो गयी, और जनता पार्टी ने इसका पूरा क्रेडिट अपने हिस्से ले लिया।
जबकि ओबीसी कोटा के लिए जोर-आजमाइश कांग्रेस के एक अन्य दिग्गज एच एन बहुगुणा द्वारा ने की थी। जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में इस मुद्दे पर छेदीलाल साथी आयोग का गठन किया था।
अब जब कांग्रेस यूपी से पूरी तरह नदारद हो गयी है ओबीसी वर्ग की भावनाएं भी पार्टी के साथ बहुत ज़्यादा नहीं बच गयी हैं। 1990 में कांग्रेस को ओबीसी न्याय की राजनीति में एक और झटका लगा जब केंद्र में जनता दल सरकार के प्रमुख के रूप में उसके बागी नेता वी पी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा की। मंडल आयोग का गठन 1978 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार द्वारा किया गया था और 1980 में रिपोर्ट पेश हुई थी लेकिन 14 वर्षों तक यह रिपोर्ट केंद्र की कांग्रेस सरकारों के दौरान धूल फांकती रही।
यूपी और बिहार में हर बार कांग्रेस विरोधी लड़ाई का नेतृत्व ओबीसी नेताओं ने किया। इनमें पहले राम मनोहर लोहिया का नाम था फिर चौधरी चरण सिंह सामने आए जबकि दोनों ही ओबीसी नेता नहीं थे। कुछ अरसे बाद यूपी में मुलायम सिंह यादव, बिहार में लालू प्रसाद और मध्य प्रदेश से शरद यादव जैसे क्षेत्रीय ओबीसी नेताओं का उदय हुआ, यूपी और कांग्रेस में जाट उठ खड़े हुए।
वीपी सिंह की जीवनी ‘मंज़िल से ज्यादा सफर में’ में राम बहादुर राय ने उन्हें कोट करते हुए लिखा कि “कांग्रेस के नेता सत्ता समीकरणों से ग्रस्त थे। उन्हें सामाजिक समीकरणों और हो रहे परिवर्तनों से कोई सरोकार नहीं था, जब पार्टी चुनाव हार जाती है तो वे चिंता भी नहीं करते… कांग्रेस एक दशक खो चुकी है। कांग्रेस को गठबंधन की ताकत के महत्व को समझने में काफी वक्त लगा। कांग्रेस को यह महसूस करने में 15 साल लग गए कि राजनीति बदल गई है। भाजपा ने (गठबंधन के मुद्दों) पर कांग्रेस की तुलना में अधिक लचीलापन दिखाया है।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ी मेहनत से ओबीसी समर्थन आधार तैयार किया है। हालांकि कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता मानते हैं कि पार्टी क्रेडिट गेम में पिछड़ गई है। उन्होंने कहा, ‘यह सच है कि कांग्रेस नेतृत्व ने ओबीसी के लिए जो कुछ किया है, उसका श्रेय लेने में पार्टी उतनी मुस्तैद नहीं दिखाई दी है।