इसमें काफी ऊर्जा खप जाती है और इससे सेहत और पर्यावरण की कई चिंताएं भी जुड़ी हैं। अब अमेरिकी वैज्ञानिकों ने नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूजन) से असीम ऊर्जा पैदा करने वाला संयंत्र तैयार कर लिया है। इस प्रक्रिया में ज्यादा ऊर्जा पैदा होती है और ऊर्जा का नुकसान भी नहीं होता।
कई दशकों से वैज्ञानिकों ने नाभिकीय संलयन पर आधारित संयंत्रों (रिएक्टर) को लेकर खूब प्रयोग किए हैं। हालांकि अब तक कोई अच्छा व्यावहारिक माडल विकसित नहीं हो सका। अब पहली बार अमेरिका में शोधकर्ताओं ने इस मामले में बड़ी सफलता हासिल की है। ब्रिटेन के अखबार ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ ने खबर छापी है कि अमेरिका ने नाभिकीय संलयन पर आधारित संयंत्र बना लिया है।
रिपोर्ट के मुताबिक इससे साफ, सुरक्षित और इतनी प्रचुर मात्रा में ऊर्जा बनेगी, जिससे हम इंसानों की हर तरह के जीवाश्म र्इंधन पर निर्भरता ही खत्म हो जाएगी। नाभिकीय विखंडन और नाभिकीय संलयन में फर्क को लेकर तमाम अध्ययन पर गौर कर नए तरह का रिएक्टर तैयार किया गया। इसमें नाभिकीय संलयन की विधि का इस्तेमाल किया जा रहा है।
कैलिफोर्निया की ‘लारेंस लिवरमोर नेशनल लैबोरेट्री’ में एक ऐसा परमाणु संलयन संयंत्र बनाया है, जिसमें पूरी ऊर्जा जमा कर ली जाती है। इसका मतलब हुआ कि उस रिएक्टर को सक्रिय करने में जितनी ऊर्जा लगती है, वह बेकार नहीं जाती। आज तक किसी रिएक्टर में ऐसा कभी नहीं हुआ है। दुनिया भर के परमाणु संयंत्रों में नाभिकीय विखंडन कराया जाता है। एक भारी परमाणु के केंद्र को तोड़ कर उससे ऊर्जा बनाई जाती है।
वहीं फ्यूजन यानि नाभिकीय संलयन में दो हल्के हाइड्रोजन परमाणुओं को जोड़कर एक भारी हीलियम परमाणु बनाया जाता है, जिस दौरान बहुत ज्यादा ऊर्जा मुक्त होती है। मिसाल के तौर पर, हमारे सौर मंडल के केंद्र में मौजूद तारे सूर्य की असीम ऊर्जा का भी यही राज है। हमें धरती पर फ्यूजन रिएक्टर को चलाने के लिए हाइड्रोजन को बहुत ज्यादा ऊंचे तापमान तक गर्म करना होता है और वो भी खास उपकरणों के भीतर।
लारेंस लिवरमोर लैब के शोधकर्ताओं ने इसके लिए विशाल ‘नेशनल इग्निशन फेसिलिटी’ का इस्तेमाल किया, जो तीन फुटबाल के मैदानों के बराबर आकार की है। इसमें 192 महाशक्तिशाली लेजर लगाए गए जो कि हाइड्रोजन से भरे एक छोटे से सिलेंडर पर गिराए जाते हैं। इस प्रयोग में रिएक्टर को सक्रिय करने में 2.1 मेगाजूल ऊर्जा खर्च करने से 2.5 मेगाजूल ऊर्जा पैदा हुई जो कि लागत का 120 फीसद है।
ऐसे नतीजों से उस सिद्धांत की पुष्टि होती है जो दशकों पहले संलयन के शोधकर्ताओं ने दिया था। संलयन के दौरान भी कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता। हालांकि, दोनों प्रक्रियाओं में कई फर्क हैं। जैसे कि संलयन के कारण परमाणु आपदा का कोई खतरा नहीं है और इससे रेडियोधर्मी कचरा भी काफी कम निकलता है। अगर ये तरीका इस्तेमाल में आ जाता है तो धरती पर असीम ऊर्जा का एक ऐसा जरिया हाथ लग जाएगा।
जो कि तमाम परंपरागत ऊर्जा स्रोतों का साफ और सुरक्षित विकल्प होगा।अमेरिका के सफल प्रयोग से एक रास्ता तो खुला है लेकिन इसे औद्योगिक स्तर तक लाने का रास्ता अभी लंबा है। जानकारों का कहना है कि इससे निकलने वाली ऊर्जा को अभी कई गुना बढ़ाने और प्रक्रिया को सस्ता बनाने की जरूरत है। मोटे तौर पर अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसमें 20 से 30 साल और लग जाएंगे। वहीं लगातार गंभीर होते जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए पर्यावरण विशेषज्ञ इसे जल्द से जल्द करने की जरूरत पर बल देते हैं।
अमेरिका के अलावा विश्व के कुछ और देश संलयन आधारित परमाणु संयंत्र बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं। इसमें 35 देशों के सहयोग से चल रहे अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट आइटीईआर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो फ्रांस में चल रहा है। कैलिफोर्निया की ‘लारेंस लिवरमोर नेशनल लैबोरेट्री’ में एक ऐसा परमाणु संलयन संयंत्र बनाया गया है, जिसमें पूरी ऊर्जा जमा कर ली जाती है। आज तक किसी रिएक्टर में ऐसा कभी नहीं हुआ है। दुनिया भर के परमाणु संयंत्रों में नाभिकीय विखंडन कराया जाता है। एक भारी परमाणु के केंद्र को तोड़ कर उससे ऊर्जा बनाई जाती है।