स्वयं-सहायता समूहों द्वारा खाद्य पदार्थ और जंगली जड़ी-बूटियां भी बेची जाती हैं, जिससे उनकी आमदनी और सशक्तिकरण में बढ़त होती है। जंगल की जड़ी-बूटी, वहां पर उगाए पेड़-पौधों से जो फल, बीज और फूल मिलते हैं, उनको महिलाओं द्वारा वन-विभाग की मदद से पैकेज किया जाता है। जैसा हर्र, बहेड़ा, अर्जुन और अनंतमूल की छाल, बांस के सामान, वनोपज जैसे महुआ के फूल, महुआ के फूलों से बनी खाने-पीने की सामग्री जैसे महुआ बिस्कुट, नमकीन, हलवा, दोना-पत्तल, लेमन ग्रास चाय, जड़ी-बूटी से बनी हर्बल चाय आदि को भी बखूबी पैकेज और मार्केटिंग द्वारा गावों और शहरों में बेचा जाता है। किसी भी हाट-बाजार में हस्तशिल्प और हथकरघा के साथ आयुर्वेदिक और वन से मिली इन चीजों के स्टाल भी मिल जाते हैं। वन विभाग से मिली सहायता से वनस्पति स्व-सहायता समूहों का काफी उद्धार हुआ है।
भारत में तो महिलाओं के घर में बनाए बड़ी, पापड़, अचार के व्यवसाय आजादी के बाद 1959 से लिज्जत पापड़ उद्योग से ही प्रचलित हैं। स्वयं-सहायता समूहों के माध्यम से इन व्यवसायों को और बढ़त मिली है। देश भर में जिला प्रशासन और प्रदेश सरकारों ने इस तरह के छोटे व्यवसायों में योगदान किया है। घर से बने अचार, पापड़, चटनी, नमकीन, बिस्कुट, जैम, शर्बत, शहरों से लेकर गांव-गांव तक प्रसिद्ध है। वर्धा जिले में ‘अंबाडी’ शरबत, करोंदे का अचार कुछ ऐसे खास उत्पाद हैं, जो अब शहरों में भी प्रसिद्ध हो चले हैं।
मोटा अनाज
संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को ‘अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज (मिलेट) वर्ष’ घोषित किया है। मोटा अनाज जैसे बाजरा, ज्वार, रागी और अन्य ऐसे अनाज जो पौष्टिक होते हैं, उनकी खेती को बढ़ावा देने हेतु यह प्रस्ताव प्रशंसनीय है। इससे कई महिलाओं के स्व-सहायता समूह जो कि इनकी पैकेजिंग करके इनको बेचते हैं, जैसे बाजरा नमकीन, रागी बिस्कुट, अर्बन इंडिया में बिकने वाली ‘म्यूस्ली’, मोटा अनाज या मिलेट से बने लड्डू को प्रोत्साहन मिलेगा। कई राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ में इस तरह के अनाज की ‘कैफे’ या कैंटीन बन गई हैं, जो महिलाओं द्वारा ही संचालित की जाती हैं। उसी तरह विभिन्न तरह के शहद की भी काफी मांग रहती है और तरह-तरह की वनस्पतियों से खाद्य उत्पाद तैयार करने वाले समूह इस व्यवसाय को चला रहे हैं।