तीन साल में 2.41 लाख करोड़ के कॉरपोरेट लोन ‘राइट ऑफ’, किसानों को दस साल में 2.21 लाख करोड़ की माफी
किसानों की कर्जमाफी इन दिनों बड़ा मुद्दा बना हुआ है। जहां सरकारें कर्जमाफी की होड़ में लगी दिख रही हैं, वहीं विशेषज्ञ मानते हैं कि यह किसानों की समस्या का पुख्ता समाधान नहीं है। उल्टे, यह अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ाने वाला कदम भी साबित होगा। जानकारों की इस दलील में दम भी है, लेकिन अर्थव्यवस्था पर बोझ कॉरपोरेट लोन वसूलने में सरकार की निष्क्रियता से भी बढ़ रहा है। कॉरपोरट लोन लगातार राइट ऑफ किए जाने की वजह से वह पैसा अर्थव्यवस्था से बाहर बना हुआ है और बोझ कम नहीं हो रहा है।

किसानों की कर्जमाफी बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया है। 2008 लोकसभा चुनाव से लेकर 2018 तक केंद्र सरकार के अलावा कई राज्यों में किसानों के ऋण माफ किए जा चुके हैं। किसानों की कर्जमाफी को लेकर एक दलील अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ने की भी दी जाती है। यह दलील पूरी तरह झुठलाई नहीं जा सकती। लेकिन, सरकार की निष्क्रियता के आगे इस दलील का दम कम पड़ जाता है। यह निष्क्रियता जहां किसानों की समस्या का असली समाधान ढूंढने के मामले में है, वहीं लोन वसूली (कॉरपोरेट लोन) में ढिलाई से भी जुड़ी है। तकनीकी रूप से सच है कि लोन वसूली में देरी की तुलना लोन माफी से नहीं की जा सकती, लेकिन व्यावहारिकता में दोनों ही बातों के असर को आंका जाए तो कुछ हद तक यह तुलना गलत भी नहीं है।
राइट-ऑफ बनाम वेव-ऑफ: तकनीकी रूप से इनके बीच का फर्क यह है कि जो लोन वसूला नहीं जा पा रहा हो, उसे ‘राइट-ऑफ’ कर दिया जाता है। इसे बैलेंस शीट सही करने के मकसद से किया जाता है। पर असल में यह पैसा किसी काम में इस्तेमाल नहीं हो सकता। तकनीकी रूप से राइट-ऑफ करने से लोन की वसूली प्रक्रिया रुकती नहीं है, पर व्यावहारिक स्थिति वही होती है जो लोन वेव-ऑफ यानी माफ करने की हालत में होती है। दोनों ही स्थितियों में पैसा कर्ज देने वाले के हाथ से निकल जाता है। बस, राइट-ऑफ करने की स्थिति में कभी पैसा लौटने की उम्मीद बनी रहती है। बैंक भविष्य में कानूनी तरीके से राइट ऑफ किए गए कर्ज की वसूली करने के लिए स्वतंत्र है। राइट ऑफ किए गए लोन की रिकवरी संबंधित वित्त वर्ष में बैंक के लाभ में जुड़ जाता है। वसूली गई राशि संबंधित बैंक की बैलेंस शीट में लाभ के तौर पर जुड़ जाती है।
कितना ठंडे बस्ते में और कितना किसानों के नाम: आंकड़ों के मुताबिक तीन साल में कॉरपोरेट्स को दिया गया जितना लोन ठंडे बस्ते में डाला गया, यानी राइट-ऑफ किया गया, उतना किसानों का कर्ज दस साल में भी माफ नहीं हुआ है। आरबीआई के मुताबिक 10 सालों में अलग-अलग राज्यों ने किसानों के 2.21 लाख करोड़ रुपये के करीब कर्ज माफ किए हैं। वहीं, सिर्फ तीन साल में कॉरपोरेट सेक्टर के 2.4 लाख करोड़ रुपये के बैड लोन ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। अप्रैल 2018 में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में बताया कि आरबीआई के डाटा के मुताबिक पब्लिक सेक्टर के बैंकों ने 2,41,911 करोड़ रुपये का कॉरपोरेट सेक्टर वाले बैड लोन ‘राइट-ऑफ’ कर दिए हैं। यह प्रक्रिया 2014-15 से लेकर 2017 के बीच पूरी की गई। जाहिर हैैै ,यह रकम बैंक वसूल नहीं पा रहे। ऐसे मामलों में बाद में बैंकों की ओर से ‘सेटलमेंट प्रपोजल’ भी रखना आम बात है।
कब, कहां कितना कर्ज माफ: गौरतलब है कि कॉरपोरेट सेक्टर का बैड लोन ऐसा नहीं कि तीन साल के दौरान ही पहली बार ठंडे बस्ते में डाला गया हो। बल्कि, कानूनी प्रक्रिया के तहत बैंक कर्जदाता का लोन समय-दर-समय राइट-ऑफ करते हैं ताकि वे अपना बैलेंस शीट ठीक रख सकें। जबकि, दूसरी ओर किसानों के कर्ज माफी का हिस्सा एक साथ नहीं बल्कि 10 सालों के अंतराल में कई टुकडों में जारी किया गया। इसमें अलग-अलग राज्यों ने किसानों की स्थिति को देखते हुए लोन माफी का दायरा बढ़ाया या घटाया। 2008 में जहां राष्ट्रीय स्तर पर 52,260 करोड़ रुपये किसानों को माफ किए गए, वहीं राज्यों की बात करें तो 2014 में आंध्र के 24,000 और तेलंगाना के किसानों के 17000 करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया। इसके बाद 2016 में तमिलनाडु ने 6000, 2017 में उत्तर प्रदेश ने 36,000, महाराष्ट्र ने 34,000 और पंजाब ने 10,000 करोड़ रुपेये की ऋण माफी की। 2018 में कर्नाटक ने 34,000 और राजस्थान ने 8000 करोड़ रुपये के ऋण माफ कर दिए।
जानकार बताते हैं कि किसानों के संदर्भ में ऋण माफी कारगर उपाय नहीं है। इससे मुश्किल का अंत नहीं हो पा रहा है। बल्कि, मुसीबत जस की तस बनी है। किसानों की दिक्कत ये है कि वे खेती से पर्याप्त पैसा नहीं कमा पा रहे हैं। खेतों में लगने वाली पूंजी और श्रम के बदले मिलने वाला मुनाफा काफी कम है। ऐसे में अगर इस स्थिति को सही से ठीक करने की कोशिश की जाए तो हालात काफी हद तक सुधारे जा सकते हैं और कर्ज माफी की जरूरत ही न पड़े।
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