आंदोलन के राम
स्वाधीनता आंदोलन से लेकर नए भारत के निर्माण तक कई ऐसे प्रसंग हैं, जिनका ऐतिहासिक प्रस्थान बिंदु 1857 को माना जाता है। 1857 की क्रांति के साथ भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का ही बड़ा आगाज नहीं होता है बल्कि यह देश में किसान आंदोलन की भी एक तरह से शुरुआत है।

1857 की क्रांति में अवध के किसानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। तब उत्तर प्रदेश का अस्तित्व नहीं था। अवध और आगरा दो सूबे हुआ करते थे। फिरंगी दासता के दौर में खासकर अवध के किसानों को अपनी जोत बचाए रखने के लिए सरकारी अमले के साथ तालुकदारों, जमींदारों और कारिंदों के पास कई तरह की मोहताजी करनी पड़ती थी। यह पहले विश्वयुद्ध के बाद का समय था और विश्वव्यापी मंदी और महंगाई ने देशवासियों की कमर तोड़ रखी थी।
अच्छी बात यह हुई कि किसानों ने शोषण-उत्पीड़न के अंतहीन होने से पहले ही सिर उठा लिया। 1919 के आखिर में किसान सभा के बैनर तले सूबे में किसान की सांगठनिक और आंदोलनकारी गतिविधियां शुरू हुर्इं। इस तरह1920 तक सैकड़ों गांवों में बाकायदा किसान संगठन खड़े हो गए। इन संगठनों के बूते शुरू हुए संघर्ष को बाद में बाबा रामचंद्र ने नया तेवर दिया।
बाबा रामचंद्र मराठी ब्राह्मण थे। छोटी उम्र से ही यायावरी जीवन बिता रहे थे। उन्होंने कुछ समय तक फिजी में दिहाड़ी मजदूरी भी की थी। 1909 में वे कभी अवध की राजधानी रह चुके फैजाबाद आए तो किसान नेता नहीं थे। तब वे तुलसी का रामचरितमानस लेकर इधर-उधर घूमते और लोगों को उसके दोहे-चौपाइयां सुनाया करते थे। किसानों के नेता तो वे किसानों की बदहाली को नजदीक से देखने के बाद 1920 के मध्य में बने। फिर तो उनके नेतृत्व में अवध के पूरे क्षेत्र में किसान आंदोलन ने ऐसा जोर पकड़ा कि फिरंगी हुकूमत के भी कान खड़े हो गए। किसानों की यह आंदोलनकारी सामूहिकता देखते-देखते राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन गई।
फिरंगी हुकूमत के खिलाफ असहयोग समर्थक किसानों ने 17 अक्तूबर, 1920 को अवध किसान सभा गठित कर ली। जातियों और ऊंच-नीच के खांचे में बंटे किसानों की एकता के लिए इस सभा में तमाम जातियों के पदाधिकारी रखे गए। सभा ने बेगारी और बेदखली के खिलाफ ठोस तरीके से विरोध जताना शुरू किया। सभा का पहला शक्तिप्रदर्शन अयोध्या में हुआ। 20-21 दिसंबर, 1920 को वहां हुए सम्मेलन में एक लाख किसान शामिल हुए।
इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए बाबा रामचंद्र अपने शरीर को रस्सियों से बांधकर एक कैदी के रूप में आए थे। उन्होंने सम्मेलन में किसानों से कहा कि वे अपने शरीर पर बंधी रस्सियां तभी खोलेंगे, जब उन्हें यह भरोसा नहीं होगा कि गुलामी की बेड़ियों से आजादी के लिए एकजुट होकर सभी किसान संघर्ष जारी रखेंगे। किसानों से इसका भरोसा मिलने के बाद ही बाबा ने रस्सियां खुलवाईं और यह देखकर किसानों ने सम्मेलन स्थल को ‘बाबा रामचंद्र की जय’ के गगनभेदी नारों से गुंजा दिया।
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