आधुनिकता का उत्तर सर्ग पूरी दुनिया में जिस तरह विकास के बड़े कुलांचे, तीखी होड़ और कुबेरी दरकारों के बीच रचा जा रहा है, उसमें खेती-किसानी की फिक्र थोड़ी पिछड़ी बात लगती है। कुछ मायनों में यह बात सही भी है। लेकिन न तो यह जमीनी स्थिति है और न ही हमारे समय की सच्चाई।
दरअसल, रोटी की बुनियादी दरकार को हल किए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते और आज तमाम रेशमी दावों के बीच जो बात सबसे ज्यादा इंसानियत को सालती है वह है दुनिया की एक बड़ी आबादी की भूख, उसका कुपोषण। ‘ग्लोबल नेटवर्क अगेंस्ट फूड क्राइसेस’ (जीएनएएफसी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल दुनिया में 13.5 करोड़ लोग भुखमरी का सामना कर रहे थे। यह साल जिस तरह कोविड-19 के प्रकोप को झेल रहा है, उसमें हालात और खराब हुए हैं। जीएनएएफसी ने भी इस बाबत आगाह करते हुए कहा है कि 2020 में दुनिया में भूख से संघर्ष कर रही आबादी दोगुनी हो जाएगी।
यह तथ्य हमें जिन बातों पर गौर करने के लिए बाध्य करता है, उसमें कुबेरी विकास की दिशा का मूल्यांकन तो है ही हमें इस सवाल से भी जूझना होगा कि क्या खेती-किसानी जैसी पुरानी परंपरा की विदाई हो रही है। क्योंकि खेती अब जीवनशैली नहीं बल्कि अनाज उत्पादन के उद्यम के रूप में देखा-समझा जाने वाला एक क्षेत्र है, जहां एक आम किसान से ज्यादा पैठ है विज्ञान की, बाजार की। यही कारण है कि भारत से लेकर जर्मनी तक जल, जमीन और जंगल पर हक और हिफाजत को लेकर जनसंघर्षों की नई आहट भी जब-तब सुनाई देती है।
चर्चा में नई खेती
कृषि को आजीविका के साथ एक ऐसी जीवनशैली के तौर पर न देखा जाए जहां प्रकृति के बिगाड़ के बजाय उसके साथ निबाह की सभ्यतागत समझ लोगों के पास है, इस तरह की सोचके लिए विकास को आंकने वाले पैमाने भी कम खतरनाक नहीं हैं। क्या इसे महज एक विरोधाभास कह देना भर पर्याप्त होगा कि दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी जब आज भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है तो विकास के वैश्विक सूचकांक में उसका योगदान महज तीन से चार फीसद कैसे आंका जाता है।
इनमें जिन देशों में कृषि को रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया माना जाता है, वे हैं अफ्रीकी देश। इन देशों के विकास दर में कृषि की हिस्सेदारी 25 से शुरू होकर 50 फीसद तक आंकी गई है। इसके उलट स्वीडन और सिंगापुर सरीखे विकसित और तेज उभार वाले देश भी हैं, जो विकास के हर धरातल पर ऊंचे तो मालूम पड़ते हैं पर खाने की उनकी थाली में तकरीबन सब कुछ आयातित है। आखिर यह तरक्की की कैसी समझ है और कैसी राह है जिसमें हमारी रसोई में तो हमारा कुछ नहीं पर इससे हमारी विकास की गति का चक्का कहीं नहीं थमता है।
इस सिलसिले में आज जिन बातों की सर्वाधिक चर्चा हो रही है वह है वैज्ञानिक नई या स्मार्ट खेती की। इजराइल और दक्षिण कोरिया जैसे देश इस लिहाज से आदर्श देश के तौर पर उभरे हैं। दरअसल, यह विकास की वैश्विक होड़ में टिके रहने की नई दरकार बन गई है कि कृषि को परंपरा और सभ्यतगात सीख से अलगाकर हम विज्ञान और तकनीक के हवाले कितनी तेजी से करते हैं।
साफ है कि खेती भी अब एक ऐसा तकनीकी आधार है जिसमें मजबूत दिखना और आगे बढ़ना विश्व अर्थव्यवस्था में ज्यादा स्थायित्व के साथ बने और टिके रहने के लिए जरूरी है। यहां जो बात समझने की है वह यह कि खेती और नवाचार का रिश्ता नया नहीं है। पर यह नवाचार अगर तकनीकी तेजी और चमत्कार के बूते तय होने लगे तो सवाल स्वाभाविक तौर पर उठेगा कि खेती और उपज को उद्योग और उत्पादन की नजर से देखने की ललक आखिर हमें ले कहां जाएगी।
तकनीकी नवाचार
बहरहाल, तकनीकी नवाचार के साथ खेती करने के मामले में नीदरलैंड, दक्षिण कोरिया और इजराइल ने जो आकर्षण पैदा किया है दुनिया के बाकी मुल्कों के लिए उसमें कुछ सीख भी शामिल है। मिट्टी की उर्वरा और पानी कीमती है, इसलिए इनका इस्तेमाल ऐसा न हो जिससे आगे हमारी मुश्किलें और बढ़ जाएं। यह समझ आज दुनिया में अमेरिका, कनाडा, नीदरलैंड, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, इजराइल से लेकर सोवियत विखंडन के बाद सामने आए कई मुल्कों में दिखाई देती है।
इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि जमीन के कम से कम रकबे में तकनीकी नवाचार के बूते अनाज का ज्यादा से ज्यादा उत्पादन निस्संदेह एक बड़ी सफलता है। वैसे भी विज्ञान अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि उसका इस्तेमाल ही यह तय करता है कि वह हमारी मदद के लिए है या बिगाड़ के लिए।
जैविकता का तर्क नाकाफी
यहां जो एक बात और गौर करने की है वह यह कि पारंपरिक और अच्छी खेती की तरफ लौटने का अर्थ सिर्फ जैविक खेती की बात करना नहीं है, यह दुनिया भर में हो रहे प्रयोगों ने सिद्ध करके दिखाया है। इसे यों भी कह सकते हैं कि खेती की पुरानी लीक कई मायनों में बेहतर हो सकती है पर उसमें अगर नए तकनीकी नवाचारों को भी शामिल किया जाए तो हम एक ऐसी खेतिहर संस्कृति की तरफ बढ़ सकते हैं, जो पर्यावरणीय दरकार के लिहाज से काफी जरूरी है।
बुनियादी हिदायत
पर दुर्भाग्य से हरियाली की नई कुबेरी लिखावट में कृषि और समाज के साझे को नए तरीके से बुनने की चिंता ज्यादा दिखाई नहीं पड़ती है। ऐसे में तकनीक और हरियाली का जोड़ मनुष्य और प्रकृति के संबंध को नई मजबूती देने के बजाय धरती पर तकनीक का पराक्रम सिद्ध करने जैसा है।
यह भी कि अगर खेती जीवन और पुरुषार्थ से ज्यादा तकनीकी चमत्कार के हिस्से चली जाएगी तो फिर सभ्यता की उस सीख से हम कहीं दूर निकल जाएंगे जिसमें यह बुनियादी हिदायत शामिल रही है कि जीवन और हरियाली के बीच दोहन या कुबेरी उपार्जन का रिश्ता ही कायम न हो बल्कि वह जीवन और समाज में वह हरित संवेदना भी बहाल रहे। इस सीख को बरतने के लिए हम न जाने कब से बच्चों को सुलेख लिखाते आ रहे हैं कि प्रकृति मां की तरह हमारी बड़ी शिक्षिका भी है।
गौरतलब है कि कोविड-19 के पहले भी कई देश भुखमरी का सामना कर रहे थे। यमन में जहां बढ़ते संघर्ष के चलते लाखों लोग भुखमरी का सामना कर रहे थे, वहीं पूर्वी अफ्रीका के कई देशों में टिड्डियों के कारण अकाल जैसी स्थिति बन गई है। यह संकट कुछ कम नुकसान के साथ हमारे यहां भी आया। हालांकि दुनिया के कई हिस्सों में इस बार अच्छी फसल होने की संभावना है। इसके बावजूद राजनीतिक अस्थिरता, संघर्ष, कीटों और अब कोविड-19 के कारण स्थिति बद से बदतर हो सकती है। ऊपर से जलवायु परिवर्तन की मार इस संकट को और बढ़ा देगी।
भूख और भारत
लिहाजा आखिर में जो बात गौर करने की है वह यह कि विकास की सीधी चढ़ाई और भूख जैसी पसरी सच्चाई के बीच खेती-किसानी का वही ढांचा बेहतर और जरूरी है, जिसमें नवाचार के साथ प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता कुछ इस तरह बहाल रहे कि कम से कम कृषि को हम उत्पादन या व्यापार के केंद्रीकृत स्वरूप से बाहर रखें।
भारत जैसे देश के पक्ष में यह बात जरूर जाती है कि हम कुछ सूबों में हरित क्रांति के बाद कृषि क्षेत्र में उस लिहाज से आगे बढ़े ही नहीं जिस तरह बीते तीन दशकों में दुनिया के कई देश बढ़े हैं। लिहाजा हमने धरती या पर्यावरण का बिगाड़ भी कम ही किया है। पर भूख एक ऐसी समस्या है जिससे सर्वाधिक जूझने वाले देशों में हमारी गिनती काफी ऊपर है।
भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि 117 देशों के ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019’ में भारत 102वें स्थान पर था। इस सूचकांक के मुताबिक भारत उन 45 देशों में शामिल है जहां खाद्य सुरक्षा की स्थिति सबसे बदतर है। साफ है कि खेती-किसानी की पुरानी धार को बहाल रखते हुए नए सुधार को अपनाना मौजूदा वक्त की दरकार है।