पुण्य प्रसून वाजपेयी
दिल्ली चुनाव तक ‘आप’ में किसी ने किसी का मुखौटा नहीं उतारा। सत्ता मिलते ही अपनी पंसद के मुखौटों को अपने पास रखकर, हर किसी ने हर चेहरे से मुखौटा उतारना शुरू कर दिया। फिर आम आदमी पार्टी का चेहरा बचेगा कहां से। जो आम आदमी वाकई बचा है, उसके जहन में तो यह सवाल आएगा ही कि जब राजनीतिक सत्ता से मोहभंग के हालात मनमोहन सिंह सरकार के दौर में पैदा हो चले थे तो अण्णा आंदोलन ने ही उम्मीद जगाई क्योंकि उसके निशाने पर सत्ता के वे मुखौटे थे जो जनता की न्यूनतम जरूरतों के साथ फरेब कर रहे थे।
इसीलिए मनमोहन सरकार के 15 कैबिनेट मंत्री हों या तब के भाजपा मुखिया, भ्रष्टाचार के कटघरे में बिना लाग-लपेट कटार हर किसी पर चली। लेकिन मुखौटे उतरने के दौर में ये सच उघड़ने लगे कि जिन्हें केजरीवाल कटघरे में खड़ा कर रहे थे, उन्हीं के साथ मौजूदा आप नेताओं के ताल्लुकात रहे। यह सवाल इसलिए बड़ा है कि दिल्ली की सत्ता चलाने वालों में, खोजी खबरची रहे आशीष खेतान दूसरे नंबर के खिलाड़ी बन चुके हैं। याराना पूंजीपरस्ती से लेकर पेड न्यूज को बखूबी कैसे उन्होंने अपनाया, अब यह प्रशांत भूषण के पीआइएल का हिस्सा हो चुका है।
केजरीवाल के एक और खास कुमार विश्वास अमेठी में राहुल गांधी को चुनौती देने वाले ऐसे कवि निकले, जिनकी धार राजनीतिक मंच पर भी पैनी दिखायी दी। लेकिन भाजपा से साथ संबंधों के हवाले की हवा पहली बार आप के भीतर से ही निकली। पिछले दिनों कांग्रेसी नेता कमलनाथ के साथ बैठक के दौर का जिक्र भी कांग्रेसी दफ्तर से ही निकला। क्या माना जाए कि उसूलों की ध्वजधारी आप के लिए सत्ता जीवन-मरण का सवाल बन चुका था। या फिर आप एक ऐसी उम्मीद की हवा में बह रही थी, जहां जनता का मोहभंग सत्ता से हो रहा था और उसे हर बुराई को छुपाते हुए आप के धुरंधर सियासी सेवक लग रहे थे।
दरअसल आप के भीतर का संघर्ष सियासी कम उम्मीद से ज्यादा मिलने के बाद उम्मीद से ज्यादा पाने और तेजी से हथियाने की सौदेबाजी के संघर्ष की अनकही कहानी ज्यादा है। लेकिन अब यहां सवाल सबसे बड़ा यही है कि सत्ता का मतलब सियासत साधना है। वैचारिक तौर पर देश की राजनीति को रोशनी दिखाना है। या फिर सत्ता का मतलब पांच बरस के लिए उन्हीं प्रतीकों को ठीककर जनता के लिए किसी बाबू की तर्ज पर सेवा करते हुए पांच बरस गुजार देना है। लेकिन कुछ मुखौटों को उतारकर अपने मुखौटों को बचाने की कवायद तो व्यवस्था को ठीक करने के बदले एक नई भ्रष्ट व्यवस्था को ही खड़ा करेगी।
जब आंदोलन से आप पार्टी बनी तो ऐसे सवाल उठे थे जो वाकई मौजूदा राजनीतिक धारा से इतर एक नई लकीर खींचने की बेताबी दिखा रही थी। सितंबर 2012 की गुफ्तगू सुन लीजिए: जो सड़क पर संघर्ष करते हैं, उन्हें महत्त्व ज्यादा दिया जाना चाहिए या जो वैचारिक तौर पर संघर्ष को एक राजनीतिक आयाम देते हैं, महत्त्व उन्हें दिया जाना चाहिए। महत्त्व तो कैडर को देना चाहिए जो संघर्ष करता है…आम आदमी पार्टी तो संघर्ष का पर्याय बनकर उभरी है। संगठन का चेहरा कुछ ऐसा रहना चाहिए जिससे पार्टी पढ़े-लिखों की बरात भर न लगे, बल्कि आंदोलन खड़ा करने वालों को पार्टी संगठन में ज्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए…।
लेकिन आम आदमी पार्टी के भीतर वैसे लोगों का महत्त्व संगठन के दायरे में बढ़ने लगा जो लगातार संघर्ष करते हुए आंदोलन से राजनीतिक दल बनाते हुए भी चुनावी संघर्ष में कूदने की तैयारी कर रहे थे। चेहरे नए थे, पर जोश था। कुछ बदलने का माद्दा था और केजरीवाल पर एतबार था।
दूसरी तरफ पढ़े-लिखे राजनीतिक समझ रखने वाले तबके में भी जोश था कि उनकी विचारधारा को सड़क पर अमली जामा पहनाने के लिए पूरी कतार खड़ी है। वह भरोसे के साथ राजनीतिक संघर्ष में खुद को झोंक देगी। यहां भी केंद्र में केजरीवाल ही थे जो संघर्ष और बौद्धिकता का मिलाजुला चेहरा लिए हुए थे। 2013 में दिल्ली के भीतर चुनावी जीत की एक ऐसी लकीर खिंची, जिसके बाद हर किसी को लगने लगा कि आम आदमी पार्टी तो एक तबके के मानस पटल पर इस तरह बैठ चुकी है, जहां से उसे मिटाना किसी भी राजनीतिक दल के लिए मुश्किल होगा, क्योंकि हर राजनेता तो सत्ता की लड़ाई लड़ रहा है। हर पार्टी का कार्यकर्ता सत्ता से कुछ पाने की उम्मीद में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से जुड़ा है।
हर बार हर किसी को सत्ता परिवर्तन या बदलाव सियासी शिगूफा से ज्यादा कुछ लगा नहीं। लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत आम जनता की होगी, यह कमाल की थ्योरी थी। जनता ने पहली बार कांग्रेस-भाजपा से इतर झांका तो उसके पीछे राजनीतिक दलों से मोहभंग होने के बाद एक खुली खिड़की दिखाई दी। जहां हवा थी, रोशनी थी, लेकिन यह हवा इतनी जल्दी बदलेगी या रोशनी घने अंघेरे में खोती दिखाई देगी यह किसने सोचा होगा।
(टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं)