इन खतरों का अनुमान लगाने और इनसे निपटने के लिए ऐसे क्षेत्रों की पहचान करना जरूरी है जो भूस्खलन संवेदी हों। भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का अनुमान लगाने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या एआइ) का इस्तेमाल अहम हो गया है।
इससे कठिन मौसम संबंधी घटनाओं का अनुमान लगाने, आपदा का मानचित्र तैयार करने, वास्तविक आधार पर घटनाओं का पता लगाने, स्थिति के अनुरूप जागरूकता फैलाने और फैसला करने में सहयोग मिल सकता है। मशीन अध्ययन या मशीन लर्निंग (एमएल) एआइ का ही एक उप क्षेत्र है जो कंप्यूटर को बिना विशिष्ट तरीके से प्रोग्रामिंग किए ही सीखने और अपना अनुभव बेहतर करने में सक्षम बनाता है। यह एल्गोरिदम पर आधारित होता है जो मानव बुद्धिमता के समान ही डाटा का आकलन, पैटर्न की पहचान और पूर्वानुमान या निर्णय कर सकता है।
प्राकृतिक आपदाओं के पूवार्नुमान को अधिक सटीक बनाने के लिए भारतीय शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या एआइ) और मशीन अध्ययन (मशीन लर्निंग या एमएल) का उपयोग करके नया एल्गोरिदम तैयार किया है। भारत के वैज्ञानिक पिछले कई साल से भूस्खलन के पूर्वानुमान को लेकर काम कर रहे हैं। इसी कड़ी में आइआइटी मंडी के वैज्ञानिकों ने भूस्खलन के पूर्वानुमान को अधिक सटीक बनाने के लिए एआइ एल्गोरिदम तैयार किया है।
आइआइटी मंडी ने विकसित एल्गोरिदम का भूस्खलन के लिए परीक्षण किया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तकनीक का इस्तेमाल बाढ़, हिमस्खलन, कठिन मौसम घटनाओं, राक ग्लेशियर और दो वर्षों से शून्य डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर जमी अवस्था वाले स्थान यानी परमाफ्रोस्ट जैसी अन्य प्राकृतिक घटनाओं के मैपिंग में भी किया जा सकता है, जिसमें काफी कम आंकड़े होते हैं । इससे खतरों का अनुमान लगाने में भी मदद मिलती है।
आइआइटी मंडी के ‘स्कूल आफ सिविल एंड एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग’ के एसोसिएट प्रोफेसर डा डीपी शुक्ला और तेल अवीव यूनिवर्सिटी (इजराइल) के डा शरद कुमार गुप्ता द्वारा विकसित इस एल्गोरिदम से भूस्खलन सेंसरी मैपिंग संबंधी डाटा असंतुलन की चुनौतियों से निपटा जा सकता है, जो किसी क्षेत्र में भूस्खलन होने की संभावना को दर्शाते हैं। इस अध्ययन के नतीजे हाल ही में ‘लैंडस्लाइड’ पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
एमएल एल्गोरिदम में सटीक पूर्वानुमान के लिए हालांकि काफी मात्रा में डाटा प्रशिक्षण की जरूरत होती है। भूस्खलन संवेदी मैपिंग (एमएलएस) में भूस्खलन के कारक तत्वों से जुड़े आंकड़े होते है। इसमें ऐतिहासिक भूस्खलन आंकड़े भी होते हैं। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में भूस्खलन बिरले ही घटने वाली घटना होती है और इससे काफी मात्रा में डाटा उपलब्ध नहीं होते हैं, जिससे एमएल एल्गोरिदम का प्रदर्शन बाधित होता है।
उत्तर पश्चित हिमालय उत्तराखंड में मंदाकिनी नदी बेसिन में 2004 से 2017 के बीच हुए भूस्खलन के आंकड़ों का उपयोग माडल के बारे में प्रशिक्षण और पुष्टि के लिए किया गया था। इसके परिणाम से यह स्पष्ट हुआ कि एल्गोरिदम से सटीकता काफी बेहतर हुई खासतौर पर तब जब उनकी तुलना सपोर्ट वेक्टर मशीन और आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क जैसी पारंपरिक मशीन शिक्षण तकनीक से की गई।
वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलाजी के जियोलाजिस्ट अजय पाल के मुताबिक, भारतीय प्लेट पर यूरेशियन प्लेट के लगातार दबाव के कारण इसके नीचे जमा होने वाली ऊर्जा समय-समय पर भूकंप के रूप में बाहर निकलती रहती है। हिमालय के नीचे ऊर्जा के संचय के कारण भूकंप आना एक सामान्य और निरंतर प्रक्रिया है। यहां कभी भी एक बड़े भूकंप की प्रबल आशंका हमेशा बनी हुई है। उनके मुताबिक, भविष्य में आने वाले भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर सात या उससे अधिक हो सकती है। फिलहाल यह बताना संभव नहीं है कि वैसा भूकंप कब आएगा।
बीते डेढ़ सौ वर्षों के दौरान हिमालयी क्षेत्र में चार बड़े भूकंप दर्ज किए गए हैं। इनमें वर्ष 1897 में शिलांग, 1905 में कांगड़ा, 1934 में बिहार-नेपाल और 1950 में असम में आए भूकंप शामिल हैं। उसके बाद वर्ष 1991 में उत्तरकाशी, 1999 में चमोली और 2015 में नेपाल में भी भयावह भूकंप आया था। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर भूकंप से बचाव की ठोस रणनीति बनाने की स्थिति में जानमाल के नुकसान काफी हद तक कम किया जा सकता है। विशेषज्ञ इस मामले में जापान की मिसाल देते हैं। डा पाल का कहना है कि बेहतर तैयारियों के कारण लगातार मध्यम तीव्रता के भूकंप की चपेट में आने के बावजूद वहां जान-माल का ज्यादा नुकसान नहीं होता है।