बदलती स्थितियों के मुताबिक मनुष्य के जीवन में बदलाव स्वाभाविक है। मगर आज बाजार के दबाव में जो बदलाव बच्चों की जिंदगी में देखे जा रहे हैं, वे कई तरह की चिंता का सबब हैं। बाजार ने इतने तरह के सरंजाम रच दिए हैं बच्चों के लिए कि उनके लालन-पालन, खानपान, पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, सोच-समझ सब पर उनका असर नजर आ रहा है। बच्चों की इस बदलती दुनिया के बारे में बता रही हैं क्षमा शर्मा।
बड़ों की दुनिया बदल गई है। उनके साथ-साथ बच्चों की दुनिया भी बहुत बदल गई है। शायद पंद्रह साल पहले की बात है। एक शाम दफ्तर से लौटते हुए देखा, एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ जा रहा था। उससे बातें करने का मन किया। रुक कर बच्चे से पूछा- औल, क्या हाल है। अचानक बच्चे के नथुने फूले। उसने आंखों में आंखें डाल कर देखा। फिर कहा- आंटी, औल नहीं, और। उसकी बात सुन कर चकित हो उठी। उसे सही भाषा चाहिए थी। आखिर इस छुटपन में हमेशा सही बोलने की बात, उसने कहां से सीखी होगी।
जाहिर है, माता-पिता और अपने परिवार के परिवेश से ही। यानी कि उसे सही ही बोलना था। गलत बोलता होगा, तो उसे ठीक किया जाता होगा। सही भाषा बोलने के चक्कर में उसकी मासूमियत कहां बिला जाएगी, उसका बालपन हर लिया जाएगा, इसकी चिंता किसी को क्यों नहीं थी। सही तो उसे जीवन भर बोलना था, अगर बचपन में कुछ तुतला कर बोल भी लेता, तो उसके जीवन में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। लेकिन उस दवाब के क्या कहने, जो हर वक्त उसे सही ही देखना चाहता था।
तुलसी की पंक्तियां बरबस याद आर्इं- जो बालक करि तोतरि बाता… ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां। आज के दौर में पैजनियां कहां से पहनेगा, जब उन्हें पहनने वाला लड़का, नहीं लड़की कहलाएगा। सूर का वात्सल्य इसे सही करने के चक्कर में कहां गुम हो जाएगा, कैसे बताया जाए। वैसे आपने भी ऐसे बच्चों को देखा होगा, जिन्हें चम्मच बोलने पर डांट पड़ती है। स्पून बोलने को कहा जाता है। सेब को एप्पल बोलने पर तालियां बजाई जाती हैं। कहते रहें कि बच्चों का विकास मातृभाषा में ही सबसे अच्छा हो सकता है। कि बच्चा गर्भ में जो कुछ सीखता है, वह मातृभाषा में ही होता है। मगर अंग्रेजी का दबदबा इतना ज्यादा है कि उसके सामने मातृभाषाओं की कोई कीमत नहीं होती। और अगर मातृभाषा हिंदी है, तब तो वह न केवल अंगरेजी, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं से भी पिटने को अभिशप्त है।
जिस बच्चे से पंद्रह साल पहले मिली थी, वह तो अब किशोरावस्था की दहलीज लांघने वाला होगा। जब उसने सही बोलने को कहा था, उस वक्त तो बच्चों के ऊपर तकनीक का हमला भी इतना नहीं था। आज तो बच्चों के हाथ में पालने में ही मोबाइल पकड़ा दिया जाता है। एक आठ महीने के बच्चे का वीडियो देख रही थी, जहां उसकी उंगलियां मोबाइल पर किसी विशेषज्ञ की तरह चल रही थीं। इसे माता-पिता किसी गौरव की तरह बता रहे थे।
मोबाइल दुनिया को देखने की खिड़की बन चला है। विशेषज्ञ भले कहते रहें कि यह खतरनाक है, बच्चे के बचपन को छीन लेता है। जो माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल या कंप्यूटर से दूर रखते थे, उन्हें भी कोरोना के समय में बच्चों के हाथ में इसे देना पड़ा। बहुत से माता-पिता ने यह शिकायत भी कि अब जब आनलाइन कक्षाएं मोबाइल या लैपटाप के बिना नहीं हो सकतीं, तब ऐसा कैसे हो सकता है कि वे बच्चों पर हरदम नजर बनाए रखें कि वे क्या देख रहे हैं।
आखिर उन्हें भी बहुत से काम हैं। तकनीक का हमला इतना तेज है कि उससे कोई नहीं बच सका है। तकनीक को भगवान मानने वालों ने इसे भुला दिया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। छोटे-छोटे बच्चों को ‘टैक्नो सैवी’ होते देख हम भले खुश हो लें, लेकिन जानते हैं कि टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल के कारण न केवल बड़ों का, बल्कि बच्चों का ‘स्क्रीन टाइम’ लगातार बढ़ रहा है। इससे न केवल आंखों की तकलीफें बढ़ रही हैं, बल्कि बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव, रक्तचाप, जोड़ों और कंधों के रोग भी बढ़ रहे हैं।
कुछ साल पहले चार साल के एक बच्चे के बारे में खबर आई थी कि उसका रक्तचाप बहुत उच्च था। बच्चों में होने वाली टाइप वन डायबिटीज भी बढ़ रही है। इसकी वजह बताई जाती है कि बच्चों में शारीरिक गतिविधियां लगातार कम हो रही हैं। वे अधिक से अधिक समय बैठ कर मोबाइल या कंप्यूटर के सामने बिता रहे हैं। इसके अलावा वे जंक फूड का इस्तेमाल खूब कर रहे हैं। जितनी कैलोरी चाहिए, उससे सैकड़ों गुना अधिक कैलोरी खाना रोजमर्रा की बात हो चली है। अच्छा खाने का मतलब है बाजार का खाना।
सरकारें समय-समय पर कानून बनाती रहती हैं कि बच्चों के स्कूलों के पास, स्कूलों की कैंटीन में, जंक फूड नहीं मिलना चाहिए। उन्हें अधिक से अधिक पोषक खाना खाने पर जोर देना चाहिए। मगर ऐसा होता नहीं है। इसका कारण बताया जाता है कि जंक फूड इतने आकर्षक तरीके से बेचा जाता है, इतनी आकर्षक मार्केटिंग होती है कि बच्चों को सहज ही आकर्षित कर लेती है। यही नहीं, प्राय: इन्हें बेचने के लिए माडल भी बच्चे ही होते हैं। इस खाने को बच्चों की सफलता, परीक्षा और खेलों में अच्छा करने से भी जोड़ दिया जाता है। जबकि इन खाद्य पदार्थों में अधिक वसा, अधिक चीनी और अधिक नमक का इस्तेमाल होता है। जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं।
खानपान की बदलती रुचियां
दशकों पहले ब्रिटेन में डिब्बाबंद खाद्य बनाने वाली कंपनियों को चेतावनी दी गई थी कि वे बच्चों को लुभाने से बाज आएं। वरना उन पर रोक लगा दी जाएगी। लेकिन अपने यहां ऐसे प्रयास शायद ही दिखते हैं। इन दिनों तमाम तरह के शीतल पेय बच्चों में बेहद लोकप्रिय हैं, यहां मिलने वाले तरह-तरह के शर्बत, ठंडाई, छाछ शहर तो छोड़िए, गांवों से भी गायब हो चुके हैं। किसी बच्चे से पूछिए तो वह इन पारंपरिक पेयों को पीने के लिए मुश्किल से ही तैयार होगा। क्योंकि बाजार में मिलने वाले तमाम खाद्य पदार्थों को हैसियत से भी जोड़ दिया गया है। माता-पिता भी इसी में भलाई समझते हैं कि बच्चे से अगर कोई काम करवाना है, तो उसे किसी बर्गर, चाकलेट, नूडल्स, मोमोज का लालच दिया जाए। क्योंकि वे बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं, बनाने का कोई झंझट भी नहीं।
एक बार मशहूर अभिनेत्री शिल्पा शेट््टी ने कहा था कि उनके बच्चे ने आज तक चाकलेट नहीं खाई है। अगर उससे कुछ करवाना हो, तो उसे गुड़ खाने का लालच दिया जाता है और काम पूरा होने पर उसे वह दिया भी जाता है। यह देखना दिलचस्प है कि जो सेलिब्रिटीज तमाम तरह के जंक फूड बेचते हैं, वे अपने बच्चों को इससे दूर रखते हैं। जिन चीजों का विज्ञापन वे करते हैं, उनके बारे में अकसर बताया जाता है कि इससे उस उत्पाद की बिक्री में कितने प्रतिशत बढ़ोतरी हुई, यानी कितने खरीददार मिले। बाहर के बच्चे इन्हें खाकर बीमार पड़ते हैं तो पड़ते रहें, हमारे बच्चे ठीक रहने चाहिए।
इस संदर्भ में वे दिन याद आते हैं जब संयुक्त परिवारों में बच्चे पलते थे। घर का बच्चा सबकी जिम्मेदारी था। उसकी तेल मालिश से लेकर उसका खानपान तक घर के बुजुर्गों के हवाले था। बच्चे के जन्म के साथ ही उससे बातचीत शुरू हो जाती थी। दादी तेल लगा रही हैं तो, कोई पालना झुला रहा है तो बातचीत, कोई कंधे पर घुमा रहा है तो बातचीत। बच्चों के तमाम प्रश्नों और जिज्ञासाओं के जवाब भी हाथ के हाथ।
इससे बच्चे बोलना सीखते थे, सामूहिकता की भावना बलवती होती थी, उन्हें भावनात्मक लगाव की कमी कभी महसूस नहीं होती थी। संयुक्त परिवार के बिखराव ने न केवल बड़ों को, बल्कि बच्चों को भी अकेला कर दिया। कुछ दिन पहले एक सर्वे में बताया गया था कि इम्तहान के दिनों में जो बच्चे एकल परिवारों में रहते थे, उनका तनाव बहुत अधिक था, जबकि संयुक्त परिवारों में रहने वाले बच्चों में तनाव का स्तर पाया ही नहीं गया। मिला भी तो बहुत कम।
एक तरफ तर्क दिया जाता है कि बच्चों को किसी बात के लिए रोकना नहीं चाहिए, मना नहीं करना चाहिए। उनके विकास के लिए जरूरी है कि बच्चे को भी एक इकाई माना जाए। रोक-टोक से उस पर नकारात्मक असर पड़ता है। लेकिन अगर बच्चों को कुछ गलत करने से रोकेंगे नहीं, उन्हें क्या करना चाहिए क्या नहीं, बताएंगे नहीं, उन्हें अपने आप सब कुछ करने की छूट होगी, तो वे बच्चे किस बात के।
आखिर कक्षाओं में बच्चों को बताया ही जाता है कि वे क्या करें और क्या नहीं, क्या पढ़ें, कितना पढ़ें, कैसे पढ़ें, लिखें कैसे, अच्छा, साफ-सुथरा लिखना क्यों जरूरी है, दूसरों का आदर, किसी से भेदभाव न करना आदि बातें बताई ही जाती हैं, लेकिन बहुत से बाहरी दवाब ऐसे हैं जो कहते हैं कि बच्चे से कुछ न कहें। जो बच्चों को पालते हैं, पढ़ाते हैं, खेलने की शिक्षा देते हैं, स्कूल की तमाम गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, वे जानते हैं कि बच्चों को प्रति पल सही-गलत में फर्क करना सिखाना पड़ता है। अगर न सिखाया जाए, तो न वे पढ़ाई में अच्छा कर सकते हैं, न ही खेल सीख सकते हैं, न अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रह सकते हैं।
यह सच है कि दुनिया बहुत तेजी से बदल गई है। बदल रही है। इस बदलाव से बच्चे भी कैसे बच सकते हैं। पर यह सोचना है कि यह बदलाव उन्हें अकेला न कर दे। उनके भावनात्मक संबल न छीन ले। बेहतर है कि अपने सपने उन पर न लादें। जो हम करना चाहते थे, नहीं कर पाए, तो बच्चों से यह उम्मीद क्यों कि वे वही करें, वही बन कर दिखाएं जो हम बनना चाहते थे। बच्चे के सवालों से घबराने की जगह, उसके सवालों के उत्तर खोजें। खुद ही तय न करें कि बच्चे क्या करना, क्या पढ़ना चाहते हैं। उन्हें भी चुनाव का अवसर मिलना चाहिए। हां, कहानियों और घटनाओं के उदाहरणों से उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान कराई जा सकती है। उपदेश देने के मुकाबले, किसी कथा-कहानी के पात्रों से बच्चे जल्दी सीखते हैं।