मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के निधन के तीन महीने बाद उनसे आठ साल छोटे शरद यादव (Sharad Yadav) का 12 जनवरी को निधन हो गया। दोनों लोहियावादी राजनीतिक परंपरा से आते थे। दोनों 1990 के दशक में उत्तर भारत की राजनीति को बदलने वाले मंडल के उभार के प्रतिनिधि थे। मुलायम सिंह ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1960 के दशक में की थी जब सोशलिस्ट पार्टियों का हिंदी भाषी क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रभाव था। वहीं शरद यादव जेपी आंदोलन से निकले थे।
शरद यादव की राजनीति में एंट्री
राष्ट्रीय राजनीति में उनका प्रेवश बहुत नाटकीय था। वह 1974 के अंत में जबलपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार थे। शरद यादव उपचुनाव जीत गए थे। यह वही दौर था जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस संसद पर हावी थी और विपक्ष लड़खड़ा रहा था।
समाजवादी विचारक मधु लिमये लिखते हैं कि, “शरद यादव की जीत को जयप्रकाश नारायण ने खुद लोकप्रिय जीत बताया था। उन्होंने चेतावनी दी कि सफलता को किसी पार्टी या विपक्षी दलों की जीत के रूप में नहीं, बल्कि लोगों की जीत के रूप में देखा जाना चाहिए। वह पूरे देश में जन आंदोलन को तेज करना चाहते थे।”
इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी बनने, उनकी सरकार द्वारा न्यायपालिका और नागरिक स्वतंत्रता को कम करने, संस्थाओं को निशाना बनाने से नाराज जेपी ने विपक्षी एकता और जनआंदोलन का आह्वान किया था। आपातकाल के 21 महीने बाद मार्च 1977 में चुनाव हुए, तो कांग्रेस ने आजादी के बाद पहली बार केंद्र में सत्ता खो दी।
क्यों टूट गयी जनता पार्टी?
जिस जनता पार्टी ने जीत हासिल की वह अलग-अलग पार्टियों और विचारधाराओं का गठबंधन थी और इसकी सफलता का कांग्रेस के खिलाफ जनता के गुस्से से बहुत कुछ लेना-देना था। जेपी की विशाल नैतिक उपस्थिति ने यह सुनिश्चित किया था कि उत्तर भारत में लोग जनता पार्टी के पीछे एकजुट हो जाए।
आंतरिक अंतर्विरोधों और इसके नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं के कारण जनता का प्रयोग ध्वस्त हो गया। लेकिन इससे चुनावी राजनीति में कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो गया। एक तरह से 1977 की जीत उस कांग्रेस विरोधी राजनीति की जीत थी, जिसे राममनोहर लोहिया ने 1950 के दशक में शुरू किया था।
लोहिया का मानना था कि नेहरूवादी कांग्रेस औपनिवेशिक संस्थानों और अंग्रेजी भाषा जैसी विरासतों को जारी रखते हुए गांधी के स्वराज के आदर्शों से भटक गई है। उन्होंने पिछड़ी और अनुसूचित जातियों, आदिवासियों और महिलाओं सहित विभिन्न उत्पीड़ित समूहों के उत्थान के लिए एक सामाजिक क्रांति का आह्वन किया था।
एक तरह से लोहिया ने गांधी के स्वराज और सर्वोदय के आदर्शों को आंबेडकर की कट्टरपंथी जाति-विरोधी दृष्टि से जोड़ा था। आश्चर्य नहीं कि मुलायम सिंह और शरद यादव जैसे पहली पीढ़ी के नेताओं ने लोहिया को एक वैचारिक गुरु के रूप में पाया। वास्तव में मुलायम और शरद यादव जैसे नेताओं का उदय लोहिया की उस राजनीतिक दृष्टि की विजय थी, जिसमें अभिजात वर्ग के प्रभुत्व को बदलने के लिए शूद्र क्रांति की कल्पना की गई थी।
यदि लोहिया ने मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव को वैचारिक आधार दिया, तो मंडल आंदोलन ने उन्हें यूपी और बिहार में कांग्रेस के एकाधिकार को खत्म करने के लिए लॉन्च पैड प्रदान किया।
कमंडल का जवाब मंडल – शरद यादव
लोहियावादी राजनेता और जनता परिवार का अंत अभिमन्यु की तरह हुआ। वे चुनावी राजनीति के उस चक्रव्यूह में टूट गए, जिसे कांग्रेस ने बनाया था। अब संघ परिवार ने चक्रव्यूह को अपने वैचारिक अर्थों में पुनर्गठित किया है।
शरद यादव ने 1990 के दशक में सिद्धांत दिया कि कमंडल का जवाब मंडल है। 1999 तक शरद यादव खुद कमंडल के साथ जुड़े और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। यादव से पहले भी सबसे करिश्माई लोहियावादियों में से एक जॉर्ज फर्नांडिस ने एनडीए का संयोजक बनने के लिए बीजेपी से हाथ मिलाया था।
आज लोहिया की भावना उन राजनीतिक दलों में नहीं है जो उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं। मंडल आंदोलन एक नए ओबीसी नेतृत्व का निर्माण करने में तो सफल रहा लेकिन मुलायम और शरद यादव सामाजिक न्याय की राजनीति से कोई ऐसा काउंटर नरेटिव तैयार करने में सफल नहीं हुए जो देश में बहुसंख्यकवाद के उदय को रोक सके।