पश्मीना शॉल (Pashmina shawl) न सिर्फ भारत में मशहूर है, बल्कि विदेशों में भी इसके दीवाने हैं। अपनी गर्माहट, नरमी, और खूबसूरती के लिए मशहूर पश्मीना शॉल पिछले कुछ वर्षों में स्टेटस सिंबल भी बन गई है और इसे कश्मीर का प्रतीक भी कहा जाता है। कुछ लोग इसे कश्मीरी शॉल (Kashmiri Shawl) भी कहते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसका नाम पश्मीना (Pashmina) कैसे पड़ा? यह कैसे बनता है और आप असली पश्मीना शॉल की पहचान कैसे कर सकते हैं?
कैसे पड़ा पश्मीना नाम?
पश्मीना शब्द फारसी के ‘पश्म’ शब्द से बना है, जिसका मतलब होता है ऊन (Wool)। पश्म का मतलब चरणबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई भी बताया गया है। kashmertourism.com के मुताबिक पश्मीना ऊन, कश्मीर की एक खास प्रजाति की पहाड़ी बकरी से निकाला जाता है, जिसे च्यांगरा या च्यांगरी (Chyangra) कहते हैं। स्थानीय लोग इसे चेगू भी कहते हैं। इन बकरियों की खासियत यह है कि ये हिमालय के पहाड़ों में 12000 फीट की ऊंचाई और माइनस 40 डिग्री से ज्यादा तापमान में रहती हैं। खासकर, कश्मीर, लद्दाख, नेपाल, तिब्बत के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती हैं। कश्मीर में इन बकरियों को जो खानाबदोश पालते हैं, उन्हें चांगपा (Changpa) कहते हैं।
तीन बकरियों के ऊन से बनती है एक पश्मीना शॉल
च्यांगरी बकरियां (Chyangra Goats) सर्दियों के दौरान अपने शरीर से ऊन की ऊपरी परत खुद त्याग देती हैं। इन्हें अलग से काटना नहीं पड़ता है। एक बकरी से निकले ऊन का वजन 80 से 170 ग्राम तक हो सकता है। पश्मीना शॉल (Pashmina shawl) बनाने की प्रक्रिया बेहद थकाऊ है। एक शॉल बनाने में कम से कम 3 भेड़ों की ऊन लग जाती है और एक सप्ताह से 10 दिन का समय लग सकता है। इसीलिये पश्मीना शॉल काफी महंगी भी होती हैं।
पश्मीना शॉल कैसे हुई मशहूर? (History of Pashmina shawl)
इतिहासकारों के मुताबिक कश्मीर के 15वीं सदी के शासक जैनुल आब्दीन ने सूबे में ऊन उद्योग की स्थापना की और कश्मीरी पश्मीना शॉल को बढ़ावा दिया। हालांकि कुछ इतिहासकार पश्मीना शॉल (Pashmina shawl) का इतिहास इससे पूर्व का बताते हैं। मुगल शासन (Mughal Empire) के दौरान कश्मीरी शॉल की लोकप्रियता बढ़ी और कश्मीर के अलावा भारत और दुनिया के दूसरे कोने में इसकी सुगंध पहुंची।
इतिहासकारों के मुताबिक बाबर (Babar) के शासनकाल में वफादारओं को ‘खिलत’ (वस्त्र देने की परंपरा) थी। खिलत में पगड़ी, कोट, गाउन और दूसरे कपड़ों के साथ-साथ कश्मीरी पश्मीना ऊन (Pashmina Wool) से बना सामान भी शामिल किया गया। बाद में अकबर ने जब कश्मीर पर विजय हासिल की तो खास ‘खिलत’ समारोह आयोजित किया गया, जिसमें कश्मीरी पशमीना शॉल तोहफे के तौर पर दी गई।

धीरे-धीरे कश्मीरी पशमीना शॉल भारत के अलावा पड़ोसी मुल्कों में मशहूर हो गई। नेपाल और दूसरे मुल्कों में तो दहेज का अनिवार्य हिस्सा बन गई है। यूरोप के तमाम देशों में भी खूब लोकप्रिय हुई।
PM नरेंद्र मोदी को भी पसंद है पश्मीना शॉल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) भी पश्मीना शॉल के मुरीदों में हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री (PM) जब गुजरात (Gujarat) में अपनी मां से मिलने पहुंचे तो उन्होंने ऑरेंज कलर की पश्मीना शॉल ओढ़ रखी थी उनके इस शॉल की तस्वीरें भी खूब वायरल हुईं। सोशल मीडिया पर दावा किया गया कि इस साल की कीमत 135000 थी।
कैसे कर सकते हैं असली पश्मीना शॉल की पहचान? (How to Identify Real Pashmina)
सोशल मीडिया पर तमाम लोग ऐसा दावा करते हैं कि कश्मीरी पश्मीना शॉल (Pashmina Shawl) को आप किसी अंगूठी में डाल कर निकाल सकते हैं या अगर कश्मीरी पशमीना शॉल में छेद कर दें तो थोड़ी देर बाद इसके फैब्रिक अपने आप जुड़ जाएंगे और छेद गायब हो जाएगा। लेकिन ‘हुनर द क्राफ्ट’ ( Hunar the Craf) के सीईओ और संस्थापक जसीर अराफात इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहते हैं कि यह दावा पूरी तरह फेक है। अगर कश्मीरी पश्मीना शॉल में छोटा सा छेद है तो फैब्रिक में नहीं दिखेगा, लेकिन आपने पेन या किसी दूसरी चीज से बड़ा होल कर दिया तो दोबारा जुड़ना मुश्किल है। धागे टूट जाते हैं।
कश्मीरी पश्मीना शॉल (Pashmina Shawl) की पहचान का एकमात्र तरीका है जीआई टैग, जिसे ज्योग्राफिकल टैग (Geographical Indication) भी कहते हैं। अराफात बताते हैं कि जीआई टैग उन्हीं कश्मीरी पश्मीना प्रोडक्ट को मिलता है, जो पूरी तरह हाथ से बुने होते हैं। इसलिए हर शॉल पर जीआई टैग जरूर होता है। कुछ शॉल ऐसे भी होते हैं जो मशीन से बुने होते हैं, इसलिए उन पर जीआई टैग नहीं होता है।