जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और कॉलेजियम (Collegium System) के बीच खींचतान जारी है। केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम सिस्टम में प्रतिनिधित्व चाहती है। कानून मंत्री (Kiren Rijiju) का कहना है कि सरकार का कॉजेजियम द्वारा भेजे नामों को आंख मूंदकर अप्रूव करना नहीं है। दूसरी तरफ न्यायिक बिरादरी एक स्वर में कॉलेजियम सिस्टम का बचाव कर रही है। हालांकि कुछ अपवाद भी सामने आए हैं
कॉलेजियम सिस्टम का बचाव करने वालों में एक बड़ा नाम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज (Former Judge of Supreme Court) मदन बी लोकुर (Madan Lokur) का भी है। लाइव लॉ के मैनेजिंग एडिटर मनु सेबेस्टियन को दिए इंटरव्यू में जस्टिस लोकुर ने सरकार की मांग को सैद्धांतिक तौर पर गलत माना है।
‘कौन होगा सरकार का प्रतिनिधि?’
जस्टिस लोकुर ने सरकार की मांग में विवरण की कमी को रेखांकित करते हुए कहा है कि, “सरकार कॉलेजियम में प्रतिनिधित्व चाहती है। लेकिन अभी इस बारे में पूरी जानकारी सामने नहीं आयी है। जैसे कि कॉलेजियम में सरकार के प्रतिनिधि की भूमिका क्या होगी? उस प्रतिनिधि का स्तर क्या होगा? क्या सरकार की तरफ से कॉलेजियम में किसी मंत्री को भेजा जाएगा, सेक्रेटरी को भेजा जाएगा, या कोई अन्य अधिकारी होगा? क्या उस प्रतिनिधि के पास वीटो पावर होगा?”
जस्टिस लोकुर ने सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट की याद दिलाते हुए कहा, “यह सिद्धांत (कॉलेजियम में सरकार का प्रतिनिधित्व) के खिलाफ है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट साफ कहा है कि कोई आउटसाइडर कॉलेजियम का सदस्य नहीं हो सकता है। अगर सरकार गलत तरह से सोच रही है, तो सवाल उठेगा ही।”
‘जजों की नियुक्ति में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका’
जजों की नियुक्ति के प्रोसेस से सरकार को यही आपत्ति है कि उनकी उसमें कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। जबकि कॉलेजियम के सदस्य रह चुके जस्टिस लोकुर का कहना है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका है।
लाइव लॉ से बातचीत में जस्टिस लोकुर कहते हैं, “जजों की नियुक्ति में सरकार की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। मुझे नहीं पता है माननीय मंत्री (कानून मंत्री किरन रिजिजू) की तरफ से ऐसी बात क्यों कही जा रही है।”
इसके बाद जस्टिस लोकुर हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के उदाहरण से पूरा प्रोसेस समझाते हैं। वह कहते हैं, “हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का उदाहरण लें तो कॉलेजियम मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठ जजों के सुझाव से रिकमेन्डेशन तैयार करता है। रिकमेन्डेशन को तैयार करने से पहले कई कॉलेजियम के बाहर के जजों और वकीलों से भी परामर्श किया जाता है।
मैं गुवहाटी हाईकोर्ट और ऑफ आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस रहते हुए कॉलेजियम के बाहर के जजों से भी परामर्श करता था। मैं वरिष्ठ वकीलों से भी सलाह लेता था। मुझे पता है कि दिल्ली हाईकोर्ट के जज भी कॉलेजियम के सदस्यों के अलावा भी अन्य लोगों से परामर्श करते हैं।
खैर, इस प्रोसेस के बाद हाईकोर्ट कॉलेजियम कुछ नाम तय करता है। उन नामों को राज्य के मुख्यमंत्री के पास भेजा जाता है। शिष्टाचार के तौर पर नामों की सूची राज्यपाल के पास भी भेजी जाती है। राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल नामों पर आपत्ति दर्ज करा सकते हैं। कोई टिप्पणी कर सकते हैं। या उन्हें जो कहना है वह कह सकते हैं।
इसके बाद मुख्यमंत्री अपनी आपत्ति/टिप्पणी के साथ नामों की सूची को भारत सरकार के कानून मंत्री के पास भेजते हैं। फिर कानून मंत्री भी इसे प्रोसेस करते हैं। उन्हें कुछ कहना होता है तो कहते हैं। अगर कोई सूटेबल नहीं होता है, तो बताते हैं। साथ में कारण भी बताते हैं।
इसके बाद यह पूरा का पूरा मैटर सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम के पास भेजा जाता है। सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम चेक करता है। वह हाईकोर्ट के कॉलेजियम की सूची देखता है। मुख्यमंत्री और राज्यपाल की आपत्ति/टिप्पणी पर गौर करता है। कानून मंत्री के सुझावों पर ध्यान देता है।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम अपने उन वरिष्ठ जजों को इंक्वायरी के लिए लिखता है, जो उस अमुक हाईकोर्ट से जुड़े होते हैं। यानी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम हाईकोर्ट के कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों की जांच करवाता है। उन जजों के रिव्यू के बाद कॉलेजियम नाम फाइनल करता है।
कॉलेजियम द्वारा निर्णय लिए जाने के बाद रिकमेन्डेशन को भारत सरकार के पास भेजा जाता है। कई बार भारत सरकार पुनर्विचार के लिए फाइल सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम को वापस भेज देती है। सरकार की टिप्पणी के आधार पर उसमें बदलाव किया जाता है। या अगर सरकार की तरह से भेजे गई नए मटेरियल में दम नहीं होता, तो उसे खारिज कर दिया जाता है।
इसके बाद रिकमेन्डेशन एक बार फिर भारत सरकार को भेजा जाता है, तब उन्हें उसे स्वीकार करना ही होता है। मुझे नहीं लगात है कि सरकार को इस सिस्टम के बारे में कोई शिकायत करनी चाहिए। इस पूरे प्रोसेस को देखने के बाद भारत सरकार को यह नहीं कहना चाहिए कि जजों की नियुक्ति में उनकी कोई भूमिका नहीं है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि जज ही जज को नियुक्त कर रहे हैं।”