एक भारतीय सैनिक जिसने भारत के लिए लगभग सभी युद्ध लड़े। 1947 में कश्मीर के भीतर पाकिस्तान से हुई पहली लड़ाई से लेकर 1971 के बांग्लादेश युद्ध तक में अपनी जान की बाजी लगाने वाला वह सैनिक, आखिर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ में अपनी ही सेना पर क्यों गोली बरसा रहा था?
कौन था वह सैनिक जिसने कभी देश को धर्म से आगे रखकर अपने केस कटा दिए थे, और बाद में धर्म के नाम पर ही देश के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया? जिन्हें कभी उत्कृष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति ने ‘परम विशिष्ट सेवा मेडल’ से सम्मानित किया था, बाद में हालात ऐसे बने की सरकार ने उनके शव तक को परिवार को नहीं दिया गया।
एक देशभक्त सैनिक
वह मेजर जनरल शाबेग सिंह थे। पंजाबी, फ़ारसी, उर्दू, बांग्ला और हिंदी समेत सात भाषा पर अधिकार रखने वाले शाबेग का जन्म पंजाब के ख्याला गांव में हुआ था। संभावनाओं से भरे 5 फुट 8 इंच लंबे शाबेग तेज धावक, अच्छे घुड़सवार और फुर्तीले तैराक थे, वह बहुत कुछ हो सकते थे, लेकिन उन्होंने सैनिक होना चुना था।
आज़ादी से पहले उन्होंने ब्रिटिश आर्मी में नाम कमाया। स्वतंत्रता के बाद भारत के लिए समर्पित हुए। आजादी के ठीक बाद जब पाकिस्तान ने कश्मीर में कबायली हमला कराया तो शाबेग ब्रिगेडियर उस्मान के बतौर स्टाफ ऑफिसर लड़े। शाबेग से महज 20 गज की दूरी पर ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी जान गंवाई थी।
1962 में जब भारत-चीन युद्ध हुआ तो, शाबेग तेजपुर में थे। बीबीसी हिंदी पर प्रकाशित रेहान फ़ज़ल की रिपोर्ट में शाबेग के बेटे प्रबपाल सिंह ने बताया है कि उनके पिता 1962 के युद्ध में घायल सैनिकों को अपने कंधे पर लादकर अस्पताल पहुंचाते थे।
1965 के युद्ध में उन्होंने हाजीपीर पर मोर्चा संभाला था। 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में असंतोष बढ़ा तो सेना के प्रमुख सैम मानेक शॉ ने शाबेग को याद किया। उन्हें नागालैंड से ‘मुक्ति बाहिनी’ को ट्रेनिंग देने के लिए विशेष तौर पर बुलाया गया। इस दौरान वह अपने परिवार से दूर रहकर गुप्त रूप से काम करते रहे। सिख धर्म को मानने वाले शाबेग ने काम के लिए अपने केस तक कटा लिए। पाकिस्तान की हार और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश के उदय के बाद राष्ट्रपति ने शाबेग को ‘परम विशिष्ट सेवा मेडल’ देकर सम्मानित किया।
एक आरोप और सब बदल गया
1971 के युद्ध के बाद शाबेग की उत्तर प्रदेश में बरेली में तैनाती हो गई। वहां रहते हुए उन्हें वित्तीय अनियमितता की भनक लगी। जनरल शाबेग उसकी जांच करने लगे। आला अधिकारियों को यह रास नहीं आया। आनन-फानन में जनरल शाबेग सिंह को रिटायरमेंट से ठीक एक दिन पर नौकरी से निकाल दिया गया। ना कोई मुकदमा चला। ना कोर्ट मार्शल हुआ। सीधे नौकरी से बर्खास्त किया गया। साथ ही भ्रष्टाचार के तमाम आरोप भी लगाए गए। उनकी पेंशन रोक दी गई। उन्होंने सरकार के फैसले को अदालत में चुनौती दी।
शाबेग की जीत हुई। उन पर लगे आरोप साबित नहीं हुए। अदालत के फैसले के बाद भी सरकार का रवैया नहीं बदला।ऑपरेशन ब्लू स्टार पर किताब लिखने वाले सतीश जैकब मानते हैं कि यही टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ और शाबेग मानसिक शांति के लिए धर्म की शरण में गए, जहां उन्हें जरनैल सिंह भिंडरावाले मिला।
एक देश विरोधी लड़ाका
भिंडरावाले के संपर्क में आने के बाद शाबेग खालिस्तान विद्रोह से जुड़ गए। भिंडरावाले के नेतृत्व में धर्म के आधार पर अलग देश की मांग ने तूल पकड़ा। राजनीतिक चालबाजियों से खाद लेकर खड़ा हुआ भिंडरावाले सरकार और देश के लिए खतरा बन गया। इंदिरा गांधी ने उससे निपटने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार स्टार चलाया। सिखों के सबसे पवित्र स्थलों में से एक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के भीतर से भिंडरावाले ऑपरेट करने लगा। उसने अपने मिलिट्री की जिम्मेदारी शाबेग को सौंपी।
जब भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर में घुसने की कोशिश की, तो शाबेग ने अपने 200 खालिस्तानी लड़ाकों के साथ मिलकर उनका सामना किया। बताया जाता है कि यह शाबेग की ही टैक्टिस थी, जिससे परेशान होकर सरकार को स्वर्ण मंदिर में टैंक घुसाना पड़ गया था। अंतत: भिंडरावाले के साथ-साथ शाबेग भी मारे गए। शाबेग के परिवार की गुहार के बावजूद सरकार उनके शव को उन्हें नहीं सौंपा।