सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज दीपक गुप्ता ने स्वीकार किया है कि अदालतों में गरीब लोग लाइन में लगे रह जाते हैं और अमीरों को जल्दी (तुलनात्मक रूप से) न्याय मिल जाता है। जस्टिस गुप्ता ने जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक विजय कुमार झा को दिए इंटरव्यू में आम लोगों की न्याय तक पहुंच, बोलने की आज़ादी और बेल देने में नाहक बरती जाने वाली सख्ती जैसे गंभीर और संवेदनशील मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त की है।
‘प्रो-रिच और प्रो-पावर है ज्यूडिशियल सिस्टम’
आम लोगों के लिए न्याय का एक्सेस अब भी आसान नहीं है। कई बार ऐसा होता है कि हाई-प्रोफाइल मामलों के लिए सुनवाई की तारीख तुरंत मिल जाती है, वहीं दूसरी तरफ लाखों ऐसे लोग जेल में कैद हैं, जिनका ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ। जब जस्टिस गुप्ता से पूछा गया कि इस दिशा में क्या होना चाहिए और कहां कमी रह रही है?
तो उन्होंने कहा, “मुझे यह चीज हमेशा परेशान करती थी। हमारा जो ज्यूडिशियल सिस्टम है, वह प्रो-रिच और प्रो-पावर है। अगर कोई अमीर आदमी क्रिमनल केस में शामिल है, तो वह बेल के लिए अप्लाई करेगा। एक बार, दो बार, तीन बार अप्लाई करेगा। वह हाईकोर्ट जाएगा। वहां से रिजेक्ट होगा तो सुप्रीम कोर्ट जाएगा। क्योंकि उसके पास पैसे हैं। वह बार-बार हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। जब चार-पांच बार जाएगा तो बेल मिले ना मिले लेकिन ट्रायल जल्दी जरूर शुरू हो जाएगा।” जस्टिस गुप्ता आगे बताते हैं कि वह हमेशा इसके खिलाफ रहे क्योंकि इससे कतार में लगे वैसे लोगों के मामले प्रभावित होते हैं जो बार-बार ऊपरी अदालतों तक नहीं जा सकते।
जस्टिस गुप्ता ने कहा, “वे ऐसे लोग हैं, जो सुप्रीम कोर्ट तो दूर की बात, हाईकोर्ट भी नहीं जा सकते। उनके पास शायद अपना वकील भी नहीं होता। उन्हें लीगल एड के तहत ही वकील मिला होता है। हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम इतना महंगा हो गया है कि गरीब आदमी अफोर्ड ही नहीं कर सकता।”
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज सिविल मामलों का उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि अगर एक अमीर और गरीब मामले में उलझते हैं, तो अमीर आदमी सबसे बेस्ट वकील करेगा। गरीब आदमी उस तरह के वकील को अफोर्ड ही नहीं कर सकता।
क्या है समाधान?
समस्याओं पर बात करने के बाद जस्टिस गुप्ता ने समाधान भी बताया। उन्होंने कहा, “किया यह जा सकता है कि लीगल एड में यह सुनिश्चित किया जाए कि अगर कोई जटिल मामला है तो उसमें किसी सीनियर वकील को ही रखा जाए। अभी तक लीगल एड में यह नहीं देखा जाता कि वकील सिविल केस देखता है या क्रिमिनल केस? वह किस तरह के केस लड़ने में महारत है?”
फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एंड स्पीच को कितनी गंभीरता से लेता है न्यायपालिका?
जस्टिस दीपक गुप्ता कहते हैं, “मेरे हिसाब से फ्रीडम ऑफ स्पीच हमारा बेसिक अधिकार है। अगर हमारा संविधान नहीं होता, तब भी यह एक मौलिक अधिक है। खासकर एक लोकतंत्र में सरकार की आलोचना करना सामान्य है। आज-कल सरकार और देश को बराबर बनाया जा रहा है। ऐसे में अगर आपने गवर्मेंट की आलोचना कर दी तो आप देशद्रोही हो। ऐसा तो नहीं होता। लेकिन हर चीज को ऐसा बना दिया जा रहा है। हर चीज में बोला जा रहा है देश को खतरा है।”
पत्रकार सिद्दीक कप्पन के मामले का उदाहरण देते हुए जस्टिस गुप्ता कहते हैं कि कप्पन इन्वेस्टिगेशन के लिए हाथरस जा रहा था, उसे जेल में डाल दिया गया। आखिर कुछ साबित नहीं हुआ। वह दो साल जेल में रहा। उसका दो साल कौन देगा। उस छोटी लड़की दिशा रवि के साथ भी यही हुआ। उसने किसान आंदोलन के दौरान कुछ बोल दिया तो उसे भी अंदर कर दिया।
बता दें केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन को अक्टूबर 2020 में उस वक्त गिरफ्तार किया गया था, जब वह उत्तर प्रदेश के हाथरस में सामूहिक बलात्कार मामले की रिपोर्ट करने के जा रहे थे। वहीं बेंगलुरु की 22 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को साल 2021 में किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने गिरफ्तार किया था।
बेल न मिलने पर क्या बोले जस्टिस दीपक?
बेल को सजा की तरह इस्तेमाल किए जाने का विरोध करते हुए जस्टिस दीपक गुप्ता कहते हैं, मेरा यह मानना है कि अब शायद टाइम आ गया, सुप्रीम कोर्ट को भी सोचना चाहिए। Bell Must Be More Liberal. बेल न देने को सजा की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। सजा तो मिलेगी पूरे ट्रायल के बाद। बेल का मतलब है कि अगर इस आदमी से खतरा है कि वह गवाहों पर दबाव डालेगा या सबूत से छेड़छाड़ कर देगा या भाग जाएगा। तब बेल मत दो। या कोई बहुत बड़ा क्राइम है तब बेल मत दो लेकिन यहां तो छोटे-छोटे मामलों में हमारे जज बेल नहीं देते। अब क्या बोलूं इसके बारे में।