16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने बिन शर्त भारत के सामने हथियार डाल दिया था। दूसरे युद्ध के बाद यह पहला मौका था, जब किसी सेना ने इतनी बड़ी तादाद में आत्मसमर्ण किया। सैन्य अफसरों और जवानों को मिलाकर 93,000 से अधिक पाकिस्तानी युद्ध बंदी बनाए गए थे। साथ ही भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान के लगभग 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े भी कर दिए थे, जिससे दुनिया के मानचित्र पर बांग्लादेश का उदय हो हुआ था।
जाहिर ये सब पाकिस्तान के लिए बहुत अपमानजनक था। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पाकिस्तान को ऐसा महसूस नहीं कराना चाहती थीं। दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध के लिए साल 1972 में जुलाई माह के पहले सप्ताह में हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में एक समझौता हुआ, उसे ही शिमला समझौता के नाम से जाना जाता है। 2 जुलाई 1972 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौता पर हस्ताक्षर किया था।
जब इंदिरा ने की भुट्टो के स्वागत की तैयारी: शिमला समझौते के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो को हिमाचल भवन में रुकना था। इंदिरा जब उस भवन में पहुंची तो देखा सजावट के नाम पर सिर्फ बेतरतीब फैली थी। पर्दे, जिनके रंग गद्दियों से अलग थे वो जमीन से एक-एक फुट ऊपर लटक रहे थे। बेमेल फर्नीचर एक साथ रखे हुए थे। पत्रकार और लेखिका सागरिका घोष अपनी किताब में ‘इंदिरा’ में लिखती है कि इस अव्यवस्था को देखकर इंदिरा खुद सजावट में जुट गयीं, तब जाकर अन्य कर्मचारियों ने भी फुर्ती दिखाई और नए सिरे से सब कुछ व्यवस्थित किया गया। भुट्टो और उनकी बेटी को शायद ही इस बात का इल्म हो कि उनकी स्वागत की तैयारी में इंदिरा गांधी ने खुद मेहनत की थी।
शिमला समझौता: यह समझौता न होते-होते भी हो गया। भारत और पाकिस्तान का प्रतिनिधिमंडल एक दूसरे साथ सहज नहीं था। बैठक बिखरने की कगार पर पहुंच ही गया था लेकिन तभी इंदिरा और भुट्टो ने कुछ देर अलग होकर बातचीत की और बात बन गयी। हालांकि जो बात बनी वो देश की बहुसंख्यक आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने वाला नहीं था। देश का एक बड़ा तबका यह चाहता था कि इंदिरा शिमला समझौता के जरिए कश्मीर समस्या का स्थायी हल निकला लें। पाकिस्तान उस वक्त कमजोर था, उसकी सेना के लगभग एक चौथाई हिस्से को भारत ने युद्ध बंदी बना रखा था, 5 हज़ार वर्ग मील जमीन पर भारत का कब्जा था, कुल मिलाकर भारत अपनी किसी भी बात को मनवाने की स्थिति में था।
लेकिन भारत इस समझौते के तहत कोई खास दबाव नहीं बना पाया। दोनों देशों के विवाद में किसी भी अन्य देश की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करने पर सहमति बनी। यानी कश्मीर मसले को द्विपक्षीय वार्ता से सुलझाने का वादा किया गया। साथ ही इस समझौते के तहत शांति, दोस्ती और सहयोग का संकल्प लिया गया। दरअसल कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इंदिरा शिमला समझौते को प्रथम विश्व युद्ध का ‘वसाये समझौते’ नहीं बनाना चाहती थी। उस समझौते के तहत जर्मनी पर अपमानजनक शर्तें लाद दी गई थीं, जिसके बाद वहां कट्टर भावना और नाज़ी विचारधारा का उदय हुआ था। इंदिरा अपने पड़ोस में नाज़ी नहीं चाहती थीं।
शिमला समझौता के वादों का क्या हुआ?: कश्मीर समस्या का समाधान तो नहीं ही निकला। लेकिन इसके अलावा भी जिन मुद्दों पर सहमति बनी थी, राष्ट्रपति भुट्टो उससे भी महीने भर में ही मुकर गए। उन्होंने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में समझौते को खारिज करते हुए कहा था कि ”हम जम्मू कश्मीर की आवाम के आत्म निर्णय के लिए संघर्ष जारी रखेंगे।” पाकिस्तान आज भी जितनी बार कश्मीर के मसले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाता है, वो उतनी बार शिमला समझौते का उल्लंघन करता है। नियंत्रण रेखा को लेकर जो समझौता हुआ था, उसे भी पाकिस्तान कारगिल युद्ध से लेकर आज तक तोड़ता आ रहा है।
इंदिरा को हुआ गलती का अहसास: बाद के दिनों में इंदिरा ने शिमला समझौते को लेकर अपनी निराशा व्यक्त की थी। उन्हें एहसास हो गया था कि वो भुट्टो के प्रति अधिक उदार रहीं लेकिन भुट्टो ने भारत के प्रति मैत्री का भाव नहीं रखा। सागरिका की किताब में इंदिरा के निराशा से भरे शब्द मिलते हैं। शिमला समझौता को याद करते हुए इंदिरा कहती हैं, ”जब उन्होंने (भुट्टो) सेना से समझौता करना शुरू किया, तभी से यह तय था कि सेना हावी हो जाएगी।”