राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सदस्यों और समर्थकों की तरफ से बार-बार यह दावा किया जाता है कि साल 1963 में नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने संघ के स्वंयसेवकों (Rashtriya Swayamsevak Sangh) को 26 जनवरी के परेड (Republic Day Parade) में शामिल होने के लिए आमंत्रण भेजा था।
आरसएस से जुड़े रतन शारदा ने अपनी किताब ‘आरएसएस 360 डिग्री’ (RSS 360) में दावा किया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के भारत-चीन युद्ध (India-China War) में आरएसएस की भूमिका का सम्मान करते हुए, उन्हें 26 जनवरी के परेड में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था।
जबकि तत्कालीन मीडिया रिपोर्ट्स और आर्काइव इन दावों की पुष्टि नहीं करते हैं। उल्टा यह पता चलता है कि साल 1963 में प्रत्येक साल की तरह सैनिक मार्च नहीं हुआ था। नेहरू के सुझाव पर 26 जनवरी के परेड को नागरिकों की परेड के रूप में आयोजित किया गया था।
वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र के॰ झा ने ‘द कारवां’ पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में विभिन्न दस्तावेजों और पत्रों के जरिए संघ के दावे से अलग तस्वीर पेश की है।
रक्षा मंत्रालय नहीं आयोजित करना चाहता था परेड?
नवंबर 1962 में चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की। दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में भारत की स्थिति कमजोर रही। सरकार और नागरिकों का मनोबल टूटा हुआ था। आशंकाओं के मद्देजनर औपचारिक रूप से युद्ध समाप्त होने के बाद भी सैनिक सीमाओं पर ही तैनात थे।
1962 के आखिरी महीने में परेड को आयोजित करने वाले रक्षा मंत्रालय ने 26 जनवरी का परेड आयोजित न करने का फैसला लिया। नेहरू ने इसका विरोध किया। उन्होंने 10 दिसंबर 1962 को तत्कालीन रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण को पत्र लिखा और नागरिक मार्च का प्रस्ताव रखा।
कारवां की रिपोर्ट के मुताबिक नेहरू ने अपने पत्र में लिखा, “मैं इस बात से सहमत हूं कि आयोजन में अनावश्यक खर्च से हर हाल में बचा जाना चाहिए और इस बात से भी सहमति है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में तैनात सेना को दिल्ली नहीं लाया जा सकता। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं क्यों परेड ही नहीं होनी चाहिए। परेड में दिल्ली में स्थित सेना होगी और यह एक नागरिक परेड होनी चाहिए जिसमें बड़ी संख्या में लोग भाग लें। होमगार्ड और एनसीसी इसमें जरूर हों और दिल्ली की अन्य स्वयंसेवक इकाइयां भी हों। इस परेड में स्कूल और कॉलेजों की बच्चे की भागीदारी के साथ ही ट्रेड यूनियनों और अन्य संगठनों के लोग भी शामिल हों।”
कैसा था नागरिक मार्च?
बाद में नहरू ने अपना यह प्रस्ताव संसदीय दल के सामने भी रखा और यह सुझाव दिया कि परेड के लिए सभी को ट्रेनिंग देने की जरूरत नहीं है। बस लोग साथ चलें, तो एक मजबूत संदेश जाएगा।
नेहरू की परिकल्पना के अनुसार ही परेड का आयोजन हुआ। दिलचस्प बात यह है कि 26 जनवरी 1963 के नागरिक परेड में संसदीय दल, तमाम मंत्री और खुद प्रधानमंत्री नेहरू ने भी भाग लिया था।
नागरिक मार्च की पहली पंक्ति के एक छोर पर संसदीय मामलों के मंत्री सत्यनारायण सिन्हा और दूसरे छोर पर यातायात एवं संचार मंत्री जगजीवन राम तिरंगा लिए चल रहे थे। बीच में नहरू समेत तमाम मंत्री और सांसद चल रहे थे। जब नागरिक मार्च राष्ट्रपति के मंच के सामने आया, तो नेहरू समेत सभी ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और आगे बढ़ते चले।
फिर संघ परेड में कैसे आया?
गांधी की हत्या के बाद से आरएसएस का सामाजिक संपर्क लागतार संकुचित हो रहा था। विशेषज्ञ मानते हैं कि तब आरएसएस विश्वसनीयता तलाश रहा था और उसके लिए 1963 का 26 जनवरी अवसर साबित हुआ। दरअसल नागरिक मार्च के परिचालित करने की जिम्मेदारी दिल्ली के मेयर नूरुद्दीन अहमद की थी। उन्होंने मार्च के सफल आयोजन के लिए विभिन्न संगठनों और ट्रेड यूनियन को शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था। इसमें आरएसएस का ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ भी था।
संघ ने इसी अवसर का फायदा उठाया और संभवत: भारतीय मजदूर संघ के सदस्यों के रूप में मार्च में भाग ले लिया। दिलचस्प बात यह है कि मार्च के दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने कोई बैनर, पोस्ट या भगवा झंडा नहीं लिया था बल्कि वह तिरंगा लेकर चल रहे थे।
गौरतलब है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताब बंच ऑफ थॉट में तिरंगे के चयन पर सवाल उठाते हुए लिखा है, ”हमारे नेताओं ने देश के लिए एक नया झंडा चुना है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ बहकने और नकल करने का मामला है… भारत एक गौरवशाली अतीत वाला प्राचीन और महान राष्ट्र है। तब, क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह हमारे पास था। फिर यह दिवालियापन क्यों?”
खैर, क्योंकि 26 जनवरी 1963 का परेड एक नागरिक मार्च था और किसी के शामिल होने पर मनाही नहीं थी इसलिए संघ का शामिल होना कोई विशेष बात नहीं है। इस संबंध में नेहरू के बयान का भी जिक्र मिलता है, जिसमें वह कहते हैं, “अफवाह थी कि आरएसएस के 25000 सदस्य आएंगे। लेकिन आए सिर्फ दो हजार और वह भी बहुत तड़क-भड़क के साथ। हम उनको नहीं रोक सकते थे। ऐसी स्थिति में हम क्या कर सकते थे? सरकार के हाथ में यह मामला तब तक था जब तक की जनता नहीं पहुंची थी। उसके बाद यह मामला प्रत्यक्ष रूप से सरकार के हाथ में नहीं रह गया था। मामले को मेयर नूरुद्दीन अहमद संभाल रहे थे, जिन्होंने अच्छा बंदोबस्त किया था।”