कॉलेजियम सिस्टम (Collegium System) को लेकर भारत सरकार (Central Government) और न्यायपालिका (Judiciary) के बीच का मतभेद अब सार्वजनिक हो चुका है। कानून मंत्री किरन रिजिजू (Union Minister for Law and Justice Kiren Rijiju) की टिप्पणियों और न्यायपालिका की तरफ से आ रही प्रतिक्रियाओं से लगातार सुर्खियां बन रही हैं। केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति में सरकार का प्रतिनिधित्व (Government Representation in Collegium) चाहती है। वहीं न्यायिक बिरादरी इसके विपरीत कॉलेजियम सिस्टम (Collegium) को बेहतर बता रहा है।
आलम यह है कि केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच जारी गतिरोध पर चिंता व्यक्त की जाने लगी है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश अमजद सैयद ने कहा है कि उम्मीद है जल्द यह सब अतीत बन जाएगा। हालांकि सरकार और न्यायपालिका के बीच का टकराव नया नहीं है। पहले भी ऐसी स्थिति बनती रही है।
कॉलेजियम से पहले कैसे होती थी नियुक्ति?
देश का प्रधानमंत्री बनने से पहले मोरराजी देसाई (Morarji Desai) महाराष्ट्र सरकार में गृहमंत्री और बाद में राज्य के मुख्यमंत्री रहे थे। जस्टिस महोम्मदेली करीम छागला (Former Bombay High Court Chief Justice MC Chagla) बॉम्बे हाईकोर्ट के पहले भारतीय मुख्य न्यायाधीश थे। दोनों के बीच न्यायिक नियुक्तियों को लेकर गहरे मतभदे थे। कानूनी खबरों से जुड़ी वेबसाइट ‘बार एंड बेंच’ पर स्वप्निल त्रिपाठी ने एक लेख लिखकर जस्टिस छागला (Justice MC Chagla) और देसाई (Desai) के मतभेदों को रेखांकित किया था।
भारत की आजादी के बाद जब संविधान को अपना लिया गया, तब कोई कॉलेजियम नहीं था। न्यायिक नियुक्तियां संविधान के अनुच्छेद 124/217 के लेटर और स्पिरिट के आधार पर हुआ करती थीं। हाईकोर्ट में जज की नियुक्ति राष्ट्रपति, राज्यपाल (प्रभावी रूप से राज्य सरकार) और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती थी। मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी नहीं थी और इसे अस्वीकार किया जा सकता था।
जस्टिस छागला ने बदल दी प्रथा
जजों की नियुक्ति के लिए राज्य सरकार प्रक्रिया शुरू करती। मुख्य न्यायाधीश की राय के लिए उन्हें नामों की सूची भेजी जाती। लेकिन जस्टिस छागला ने इस प्रथा को उलट दिया। उन्होंने राज्य सरकार को इस बात के लिए मना लिया कि पहल मुख्य न्यायाधीश की ओर से होनी चाहिए न कि सरकार की तरफ से। साथ ही जस्टिस छागला ने सरकार से यह भी कहा कि यदि मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशें खारिज हो जाती हैं तो उन्हें अन्य नाम पेश करने के लिए कहा जाना चाहिए। इस नए रिवाज ने जस्टिस छागला और मोरारजी देसाई के बीच गंभीर असहमि को जन्म दिया।
पदोन्नति बना पहले टकराव का कारण
स्वप्निल त्रिपाठी के लेख के मुताबिक, जस्टिस छागला और मोरारजी देसाई के बीच टकराव के पहले कारण बना वरिष्ठ जिला न्यायाधीश मिस्टर लाड के पदोन्नति का मामला। दरअसल जस्टिस छागला ने एक जिला को उच्च न्यायालय में लाने के लिए नाम प्रस्तुत किया। जस्टिस छागला ने जिस जिला जज का नाम पेश किया था वह जस्टिस लाड से जूनियर थें। यानी जस्टिस छागला मिस्टर लाड की सीनियोरटी को इग्नोर कर रहे थे।
इस पर मोरारजी देसाई ने सवाल किया कि वरिष्ठ जिला न्यायाधीश लाड को नजरअंदाज क्यों किया गया। छागला ने जवाब दिया कि लाड ने एक कानूनी सलाहकार के रूप में काम किया है और इसलिए वह कई वर्षों तक एग्जीक्यूटिव के साथ जुड़े रहे। वह किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने के पक्ष में नहीं थे जिसका दृष्टिकोण कार्यपालिका की तरह का हो। छागला चाहते थे कि उनके दावे पर विचार करने से पहले लाड जिला न्यायाधीश के रूप में बने रहें।
छागला के जवाब ने देसाई को आगबबूला कर दिया। मुख्यमंत्री ने धमकी दी कि जब तक उनके सुझाव को स्वीकार नहीं किया जाता तब तक वे किसी जज की लंबित रिक्तियों के लिए सिफारिश नहीं करेंगे। काफी समय तक यह गतिरोध जारी रहा और तभी समाप्त हुआ जब लाड को भारत सरकार में किसी पद पर नियुक्त किया गया।