धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद संभाल रहे थे, तब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने कहा था कि चंद्रचूड़ के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक न्यायपालिका को लेकर बनी धारणा (परसेप्शन) को तोड़ना होगा। यह धारणा कुछ लोगों के मन में ही सही, पर है कि न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ को पद संभाले 100 दिन से अधिक बीत चुका है। तो, दीपक गुप्ता की राय में वह इस चुनौती पर कितने खरे उतर सके हैं? जब पूर्व जज गुप्ता से यह सवाल किया गया तो उन्होंने कहा- काफी हद तक।
जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक विजय कुमार झा को दिए इंटरव्यू में जस्टिस दीपक गुप्ता ने बताया है कि सीजेआई चंद्रचूड़ के पद संभालने के बाद से अब तक न्यायपालिका में क्या बदलाव हुआ है।
कॉलेजियम में ट्रांसपेरेंसी के सवाल पर जस्टिस गुप्ता ने कहा कि अब जो प्रस्ताव आ रहे हैं, उनमें काफी डिटेलिंंग रहती है। किसी का नाम प्रस्तावित किया जा रहा है तो क्यों किया जा रहा है, इससे सबंधित पूरी दलील दर्ज की जाती है। न कि, केवल फैसला बताया जाता है।
जस्टिस गुप्ता कहते हैं, “चंद्रचूड़ से पहले न्यायपालिका की इमेज नीचे हो गयी थी। जस्टिस चंद्रचूड़ के आने पर पब्लिक की नजर में न्यायपालिका को लेकर परसेप्शन बदला है। अब कॉलेजियम के रिजॉल्यूशन में ट्रांसपेरेंसी है। अब यह नहीं है कि दीपक गुप्ता का नाम बिना कुछ स्पष्ट किए रेकमेंड कर दिया। अब यह स्पष्ट करना पड़ता है कि दीपक गुप्ता का नाम रेकमेंड क्यों किया गया। या दोबारा क्यों रेकमेंड किया जा रहा है। यह सभी तथ्य बताने पड़ रहे हैं।”
जस्टिस गुप्ता ने कॉलेजियम द्वारा सिफारिश किए गए व्यक्ति का नाम सरकार की ओर से मंजूर नहीं करने के लिए दी गई दलीलों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सार्वजनिक किए जाने की हालिया घटना का भी कॉलेजियम की पारदर्शिता बढ़ाने वाला कदम बताया। उन्होंने सवाल उठाया कि एक तरफ सरकार कहती है कि कॉलेजियम में पारदर्शिता की कमी है और दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट जब उसकी बातों को सार्वजनिक कर देता है तो वह नाराज होकर कहती है कि ये बातें तो गोपनीय रहनी चाहिए थीं। यह कैसा रवैया हुआ भला!
न्यायपालिका का लिबरल एटीट्यूड
जस्टिस गुप्ता आगे बताते हैं, “पहले कई केस में सुप्रीम कोर्ट बेल नहीं देते थे। लेकिन अब ऐसे मामले सुने जा रहे हैं। पिछले पांच छह महीने में न्यायपालिका का लिबरल एटीट्यूड देखने को मिला है। सरकार के विपरीत भी जो आवाज है उसे गंभीरता से सुना जा रहा है।”
वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) मामले का उदाहरण देते हुए जस्टिस गुप्ता कहते हैं, “ओआरओपी मामले में सीजेआई ने मैसेज दिया कि शील्ड कवर का प्रोसीजर मैं फॉलो नहीं करूंगा। मेरे हिसाब से शील्ड कवर का प्रोसीजर किसी अच्छी स्वतंत्र न्यायपालिका में इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। जब तक राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला ना हो ऐसा करना ठीक नहीं है।” उन्होंने कहा- ये सारी बातें न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूत करने वाली हैं।
ओआरओपी मामले में CJI ने क्या कहा?
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में OROP के तहत एरियर्स के बकाया भुगतान के लिए इंडियन एक्स-सर्विसमेन मूवमेंट (IESM) की याचिका पर सुनवाई हुई। मामला चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पारदीवाला की बेंच के सामने था। केंद्र सरकार की तरफ से पेश अटार्नी जनरल ने एक सील बंद लिफाफा पेश किया, जिसमें रक्षा मंत्रालय का जवाब था।
हालांकि बेंच ने इसे निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया की व्यवस्था के खिलाफ मानते हुए सील बंद जवाब लेने से मना कर दिया। बेंच की राय थी कि सरकार का जो भी जवाब है, उसे रिटायर्ड सैनिकों के वकील के साथ भी शेयर करना होगा। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि “मैं निजी तौर पर बंद लिफाफों के चलन के खिलाफ हूं। कोर्ट में पारदर्शिता होनी चाहिए। ये आदेशों को लागू करने के बारे में हैं। इसमें गोपनीय क्या हो सकता है। सीलबंद लिफाफे की जानकारी की एक कॉपी दूसरी पार्टी को भी देना चाहिए।”
कौन हैं जस्टिस दीपक गुप्ता?
जस्टिस दीपक गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं। इन्होंने साल 1978 में वकालत शुरू की थी। 2004 तक हिमाचल हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने के बाद दीपक गुप्ता वहीं पर जज बने। जस्टिस गुप्ता 2013 में त्रिपुरा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और 2016 में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने। साल 2017 में वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, जहां से मई 2020 में रिटायर हुए।
‘एमपी, गवर्नर टाइप पद लेना ठीक नहीं’
जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक को ही दिए इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के दूसरे रिटायर जज मदन बी लोकुर ने कहा था कि रिटायर्ड जजों को पोस्ट रिटायरमेंट जॉब के तौर पर एमपी, गवर्नर टाइप पद नहीं लेना चाहिए।
उन्होंने कहा था, “पोस्ट रिटायरमेंट जॉब के बारे में दो चीजें हैं। एक तो यह कि अगर कोई जज रिटायर हो जाए और उसे कोई नॉन जुडिशल जॉब मिले तो नहीं लेना चाहिए। जैसे- अगर किसी को कह दिया गया कि आप गवर्नर बन जाइए या मेंबर ऑफ पार्लियामेंट बन जाइए, तो इस टाइप के जॉब लेने नहीं चाहिए। अगर लेना भी है तो एक कूलिंग पीरियड के बाद लेना चाहिए।
दूसरी बात यह कि अगर रिटायरमेंट के बाद कोई ऐसा काम मिल जाए, जिसका जुडिशरी से कोई संबंध हो, जैसे- ट्रिब्यूनल्स हैं। वहां मामलों का निपटारा करना होता है। इस तरह का जॉब लेने में कोई हर्ज नहीं है। पर उसमें भी कूलिंग पीरियड होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए आप आज रिटायर हों और कल सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल में कोई पद मिल जाए। एक कूलिंग पीरियड जरूरी है।”