वर्ष 2023 में कई बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाएं तरह-तरह के संकटों से घिरी हुई हैं। विकासशील और छोटी अर्थव्यवस्था वाले देशों का संघर्ष बढ़ा है। कोविड-19 महामारी के बाद उपजे हालात, यूक्रेन में युद्ध और चीन एवं अमेरिका के बीच भू-राजनीतिक टकराव आदि कारकों का तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वित्त पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
इस सबके बीच आज के दौर का सबसे गंभीर मुद्दा मुद्रास्फीति की वापसी और ब्याज की बढ़ती दरें हैं। अत्यधिक कर्ज के बोझ तले कई देश दब चुके हैं। कम आय वाले 15 फीसद देश पहले से ही ऋण संकट से जूझ रहे हैं। 45 फीसद देश ऐसे हैं, जहां ऋण संकट उच्च जोखिम की श्रेणी का है। पैसे वाले समृद्ध समूह में 25 फीसद देश ऐसे हैं, जो असामान्य रूप से ऊंची ब्याज दरों का सामना कर रहे हैं।
वित्तीय उथल-पुथल
एक दशक से भी अधिक समय से आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के 38 सदस्य देशों में ब्याज दरें बहुत कम रही हैं और कभी-कभी तो ब्याज दरें नकारात्मक भी रही हैं। यह एक अंतरसरकारी आर्थिक संगठन है, जिसकी स्थापना 1960 में आर्थिक प्रगति और विश्व व्यापार को प्रोत्साहित करने हेतु की गई थी। अब तक मुद्रास्फीति इन देशओं के लिए चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन वर्ष 2022 में परिस्थितियां बदल गर्इं। मुद्रास्फीति का दौर लौट आया है और विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों ने अपनी मौद्रिक नीति को सख्त कर दिया है। नीति में आक्रामकता दिख रही है।
इसका विकासशील देशों पर ज्यादा असर पड़ा है। कम आय वाले 15 फीसद देश पहले से ही ऋण संकट से जूझ रहे हैं। कम आय वाले दूसरे 45 फीसद देश ऐसे हैं, जहां ऋण संकट उच्च जोखिम की श्रेणी का है। पैसे वाले समृद्ध समूह में 25 फीसद देश ऐसे हैं, जो असामान्य रूप से ऊंची ब्याज दरों का सामना कर रहे हैं। घाना, श्रीलंका और जाम्बिया जैसे देश तो पहले ही ऋण भुगतान करने में विफल हो चुके हैं। अर्थशास्त्री चेता रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर ऋण संकट को रोका नहीं जा सकता।
वैश्विक परिदृश्य
दो दशकों में सकल घरेलू उत्पाद के फीसद की तुलना में सरकारी और निजी क्षेत्र का कुल ऋण दो सौ फीसद से बढ़कर 350 फीसद हो गया है। अमेरिका में तो यह आंकड़ा 420 फीसद है, जो अब तक का सबसे ज्यादा है। चार कारणों से यह स्थिति बनी है। पहला कारक वास्तविक ब्याज दरों का है। बीते महीनों में बढ़ती मुद्रास्फीति, ऋण लेने वालों के लिए काफी लाभदायक रही है।
चाहे निजी ऋण लेने वाले हों या सरकारी- दोनों के लिए अप्रत्याशित मुद्रास्फीति अच्छी होती है। ऋण देने वालों में से कई ने कुछ समय के लिए ब्याज दरों के कम होने की उम्मीद की थी। उन्होंने अपनी रकम गंवा दी। जबकि ऋण लेने वालों ने अप्रत्याशित रूप से लाभ का अनुभव किया, क्योंकि मुद्रास्फीति के मौजूदा माहौल में उनके ऋण का वास्तविक मूल्य घट रहा है। इसके अतिरिक्त, वास्तविक ब्याज दरें नकारात्मक बनी हुई हैं।
दूसरे, ऋण लेने की नकारात्मक लागत के कारण परिसंपत्ति-मूल्य की अभूतपूर्व मुद्रास्फीति हुई है। शेयरों, रियल स्टेट और अन्य संपत्तियों- जहां आपूर्ति सीमित है- वहां कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। प्रमुख केंद्रीय बैंकों की मौद्रिक नीतियों द्वारा संचालित होने वाली इस परिपाटी की वजह से सामाजिक स्तर पर तनाव भी पैदा हुआ है। जिन लोगों के पास संपत्ति नहीं थी, उन्हें नकारात्मक नतीजों का सामना करना पड़ा। खासकर, महंगे मकानों के कारण कम ब्याज दरों का भी लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ।
बैंकों की मूल पूंजी
वर्ष 2007 से 2009 के दौर की तुलना में मौजूदा दौर में बैंकों के पास कोर कैपिटल यानी मूल पूंजी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। इस कारण बैंकों पर कर्ज को को बट्टे खाते में डालने का दबाव बढ़ा है। इस कारण अर्थव्यवस्था पर दबाव बना है। यहां यूक्रेन संकट का कारक भी है।
अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों ने मौद्रिक नीति में बदलाव किया है। ब्याज दरों की वापसी का अर्थ है पूंजी का प्रवाह ओईसीडी देशों की ओर हो रहा है, जबकि विकासशील देशों की ओर होने वाला पूंजी प्रवाह कम होता जा रहा है।
यह ओईसीडी देशों में मौद्रिक नीति के सामान्यीकरण का मुश्किल भरा नतीजा है। ऐसे में निवेशक विकसित अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय बाजारों में फिर से प्रवेश कर रहे हैं। इस कारण खासतौर पर वे विकासशील देश, जिनके पास मुख्य रूप से ऐसे ऋण हैं, जिनकी परिपक्वता अवधि कम है, मुसीबत में घिर गए हैं। इसके अतिरिक्त, कई राष्ट्र ऐसे भी हैं, जो उच्च ब्याज दरों और ऊर्जा संकट दोनों से एक ही समय पर प्रभावित हो रहे हैं।
क्या कहते हैं जानकार

प्रणालीगत ऋण संकट की स्थिति है। कम आय वाले देशों के लिए ये मुश्किल वक्त है। पश्चिमी गठबंधन को कम आय वाले ऐसे देशों के लिए एक कोष स्थापित करना चाहिए। साथ ही, उन देशों में ऋण आपात स्थिति जैसी स्थितियों का समाधान करने वाले तंत्र में सुधार किया जाना चाहिए।
- आनंद उन्नीकृष्णन, प्रबंध निदेशक, नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड
ऋण संकट इतना बुरा है कि इससे राहत के लिए और अधिक कर्ज से बात नहीं बनने वाली है। कई देश पहले से ही कर्ज में हैं और वे कर्ज के पुनर्भुगतान को माफ करने या फिलहाल स्थगित करने की गुजारिश कर रहे हैं। पूंजी के बहिर्गमन और उसके बाद होने वाली व्यय कटौती के कारण संकट गंभीर हो सकता है।
- इंदरमीत गिल, विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री
प्रतिबंधों का असर
न सिर्फ पश्चिमी देशों और यूरोप में रूसी तेल व गैस का आयात सीमित हुआ है, बल्कि रूसी ऊर्जा की खपत को समाप्त करने की कोशिश भी की जा रही है। रूसी तेल व गैस की किसी और जगह पर आपूर्ति प्रभावित हुई है। बांग्लादेश (जो अपने बिजली उत्पादन के लिए तरलीकृत प्राकृतिक गैस पर निर्भर है) जैसे देशों को उपभोक्ता वस्तुओं के लिए अचानक प्रतिस्पर्धी खरीदारों के साथ मुकाबला करना पड़ा। गरीब देश इस तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर सकते और इसके लिए उन्हें निर्धारित बजट से बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है। स्पष्ट है कि मौजूदा ऋण संकट के कम से कम एक हिस्से के लिए तो रूस पर लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंध ही जिम्मेदार हैं।