नेताओं से कुछ नहीं हुआ तो बच्चों ने संभाला मोर्चा
ग्रेटा 15 साल की है। वह स्वीडन की है और पिछले कई हफ्तों से पर्यावरण सुरक्षा के लिए हड़ताल कर रही है। शुरू में तो वह अपनी हड़ताल के चक्कर में तीन हफ्ते स्कूल नहीं गई। शिक्षकों ने समझाने की कोशिश की कि वह स्कूल आना न छोड़े, लेकिन ग्रेटा के लिए धरती पर भावी जीवन की रक्षा उसकी जिंदगी का मकसद बन गया है।

महेश झा, डॉयचे वेले, बॉन, जर्मनी
ग्रेटा 15 साल की है। वह स्वीडन की है और पिछले कई हफ्तों से पर्यावरण सुरक्षा के लिए हड़ताल कर रही है। शुरू में तो वह अपनी हड़ताल के चक्कर में तीन हफ्ते स्कूल नहीं गई। शिक्षकों ने समझाने की कोशिश की कि वह स्कूल आना न छोड़े, लेकिन ग्रेटा के लिए धरती पर भावी जीवन की रक्षा उसकी जिंदगी का मकसद बन गया है। उसकी जिद देखकर अब शिक्षक भी उसके साथ एकजुटता दिखा रहे हैं। वह अब हर शुक्रवार को स्कूल नहीं जाती। क्लास छोड़कर वह राजधानी स्टॉकहोम में संसद के सामने खड़े होकर प्रदर्शन करती है, ताकि देश के राजनीतिज्ञों के साथ साथ आम नागरिक भी पर्यावरण संरक्षण के कदमों को गंभीरता से लें।
ग्रेटा चिंतित है। चिंतित इस धरती के लिए और उस पर रहने वाले जीवों के लिए। इंसान के भविष्य के लिए। ग्रेटा का विरोध अब यूरोप के किशोरों और युवा लोगों के लिए मिसाल बन गया है। यूरोप के दूसरे देशों के बच्चे भी ग्रेटा की नकल कर रहे हैं और प्रदर्शन करने लगे हैं। जर्मनी, बेल्जियम और कई दूसरे देशों में बच्चे हर हफ्ते पर्यावरण के लिए हड़ताल कर रहे हैं। वे स्कूल न जाकर प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के कदमों की मांग कर रहे हैं, इस मुद्दे को गंभीरता से लेने की वकालत कर रहे हैं। अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है जिन लोगों के पास इस समय जिम्मेदारी है, वे धरती की रक्षा की जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।
बच्चे हमारा भविष्य हैं। उन्हें इस जिम्मेदारी का अहसास हो रहा है। वे कम से कम पर्यावरण पर फैसलों में हिस्सेदारी चाहते हैं और यूरोपीय शहरों में हो रहे प्रदर्शन बच्चों की इसी चाहत, इसी जिजीविषा की अभिव्यक्ति हैं। उन्हें लग रहा है कि मौजूदा पीढ़ी धरती को बचाने के बदले अपने खेलों में मगन है। 1960 के दशक के छात्र आंदोलनों के बाद यह पहली बार है कि छात्र समाज की वैचारिक सोच को बदलने वाले आंदोलन में भाग ले रहे हैं। ग्रेटा थूनबर्ग तो अकेली प्रदर्शन कर रही है, एक ओर अपनी बेचारगी तो दूसरी ओर अपनी मानसिक ताकत का प्रदर्शन करते हुए। इसीलिए उसे समर्थक भी मिले हैं।
इस हफ्ते बेल्जियम में लगातार चौथे गुरुवार करीब 35 हजार स्कूली छात्रों ने प्रदर्शन किया। कड़ाके की ठंड के बावजूद वे सड़कों पर उतरे। राजधानी ब्रसेल्स में 12,500 तो लिएज में 15,00 छात्र। वे भी स्कूल छोड़कर प्रदर्शन करने पहुंचे। उनकी तख्तियों पर लिखे नारों में एक था, नीला आसामान चाहते हो या खून टपकता आसमान? प्रदर्शनों का आयोजन यूथ फॉर क्लाइमेट संगठन कर रहा है। उनका कहना है कि वे तब तक डटे रहेंगे जब तक सरकार पर्यावरण संरक्षण के लिए और सक्रिय नहीं हो जाती। या फिर कम से कम मई में होने वाले यूरोपीय चुनावों तक। कई दूसरे देशों की तरह बेल्जियम में भी स्कूली शिक्षा अनिवार्य है। बड़े बच्चे माता पिता की अनुमति लेकर प्रदर्शन में हिस्सा ले रहे हैं तो बहुत से छोटे बच्चे अपने माता पिता के साथ प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं। ऐसे माता पिता जो बच्चों की मांगों का समर्थन कर रहे हैं।
बहुत से किशोर ऐसे भी हैं जो बिना किसी अनुमति के प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। हड़ताल करने वाले आम तौर पर ऐसी उम्र के हैं जो वोट भी नहीं दे सकते लेकिन राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व पर आरोप लगा रहे हैं कि वे भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे के समाधान को उनकी कीमत पर नजरअंदाज कर रहे हैं। जर्मनी में इस बात पर बहस छिड़ गई है कि स्कूल छोड़कर छात्र प्रदर्शन कर सकते हैं या नहीं। हालांकि प्रदर्शन करना छात्रों का संवैधानिक अधिकार है लेकिन सरकार की शिक्षा देने की जिम्मेदारी भी है। उत्तर से दक्षिण तक विभिन्न शहरों में स्कूली छात्र पर्यावरण के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं और वह भी स्कूल को बंक कर। इसलिए पर्यावरण आंदोलन को स्कूल हड़ताल का नाम दिया जा रहा है। उनका नारा है फ्राइडे फॉर फ्यूचर। उनका कहना है कि भविष्य ही नहीं रहेगा तो हम भविष्य के लिए शिक्षा लेकर क्या करेंगे? शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन का कहना है कि क्लास छोड़कर हड़ताल में भाग लेना उचित नहीं है। प्रदर्शन के अधिकार का इस्तेमाल स्कूल के बाद किया जा सकता है।
संवैधानिक कानून के विशेषज्ञों का मानना है कि छात्रों को अचानक हड़ताल का हक है लेकिन ये हड़ताल योजना बनाकर हो रही है। कुछ दूसरे संवैधानिक विशेषज्ञ मानते हैं कि पर्यावरण के प्रदर्शन करना क्लास में नहीं जाने का जरूरी कारण है। इस सारी बहस के बीच अब तक सरकारी संस्थानों ने हड़ताल में शामिल छात्रों या उनके अभिभावकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं शुरू की है। स्कूली शिक्षा के अनिवार्य होने के कारण इस तरह की कार्रवाई संभव है। लेकिन स्कूलों के लिए कार्रवाई करना आसान नहीं। पूरी क्लास को सजा देने को छात्र गंभीरता से नहीं लेंगे। छात्रों को क्लास से बाहर करने से सजा का मकसद पूरा नहीं होता। तो शिक्षकों को गंभीरता से छात्रों को अनुशासित करने के कदमों के बारे में सोचना होगा। लेकिन ये कदम क्या हो, क्यों कुछ छात्र जर्मन राज्य लोवर सेक्सनी के कानून का हवाला देते हैं जिसमें कहा गया है कि छात्रों को अपना और दूसरों का मौलिक अधिकार साकार करने में सक्षम बनाया जाना चाहिए। स्कूल की जिम्मेदारी है कि वह छात्रों को इसका अनुभव करने का मौका उपलब्ध कराए। आखिरकार पर्यावरण के लिए प्रदर्शन करना लोकतांत्रिक सक्रियता का उदाहरण नहीं तो और क्या है?