क्षिप्रा माथुर
दूसरा दशक बीतते-बीतते 21वीं सदी जिन संकटों से नए सिरे से घिर गई है उनमें सबसे ऊपर है भूख और विस्थापन। यह भी एक विरोधाभास ही है कि जिस दौर में आर्थिक बेहतरी के सुधारवादी आख्यान रचे गए और विकास को सर्व-समावेशी होने की दरकार कबूली गई, उस दौर में आठ करोड़ से ज्यादा लोग दर-बदर की जिंदगी जीने को मोहताज हैं।
अफगानिस्तान संकट के बीच पांच लाख अफगानियों के देश छोड़कर जाने का अंदेशा है। ये संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग कह रहा है। हमारे दौर में पराए मुल्क में शरण लेने की सबसे बड़ी त्रासदी सीरिया ने झेली है। आज पूरी दुनिया जिस मुहाने पर है वहां इंसानियत को बचाने का संकट सबसे बड़ा है। मगर सियासी फिक्र दो ही बड़ी है- अपने लोगों को बचा लाना और सरहदों की हिफाजत करना। इंसान के हक की आवाज दबे मन से सुनाई देना ही तमाम वैश्विक संस्थाओं की साझा हार है।
दो विश्वयुद्धों के दौरान जग-जाहिर था कि कौन किसके खिलाफ, किस मकसद से लड़ रहा है। आज खींचतान के सारे धड़े धुंधले भी हैं और घुले-मिले भी। कौन किसके साथ है, कहां तक साथ है, दुनिया की नुमाइंदगी करने वाले दिग्गज तमाम संशय बरकरार रखे हुए हैं। बार-बार बयान बदले जा रहे हैं, कागज की कंटाई-छंटाई हो रही है, बैठकों में अपना अपना नफा-नुकसान सोचकर बात हो रही है। किस आतंक को आतंक कहा जाए, माना जाए, बताया जाए, किस हद तक बताया जाए, इनकी रणनीतियां बन रही हैं।
बंदूक और इंसान
इस बीच, जो अहम भाष्य खड़ा हो चुका है वो है मशीन बनाम मनुष्य का। आदमी की बनाई मशीनों के रहमो-करम पर है आदमी की दुनिया। वो दुनिया जो सभ्यता के हर पायदान पर खतरों में घिरे हुए, हाथ में खंजर, तीर-कमान, भाला, बम या बंदूक थामे हुए भी एक अदद घर का ख्वाब संजोए रखती है। यही उसका आखिरी ठौर होता है। ये घर जब छूटता है, टूटता है तो दरकते ख्वाब फिर कोई ठिकाना तलाशते हैं। पनाह मांगते हैं। और फिर ये पनाहगार का कायदा और बेघर नागरिकों के इलाकों से उनके ताल्लुक तय करते हैं कि उन्हें नए घर में क्या हैसियत हासिल होगी। होगी भी कि नहीं। सियायत और कूटनीति का दायरा इतना ही तय है।
कानूनी सख्ती
स्वीडन, नार्वे और डेनमार्क में शरणार्थी कानून को लेकर राष्ट्र-हित बनाम मानव-हित की बहस छिड़ी और पाबंदियां तय की गर्इं। यही भारत के 1955 के नागरिकता संशोधन कानून में पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों को लेकर भी हुआ। हालांकि दोनों का संदर्भ जुदा था। भारत और भी मुल्कों से आए विस्थापितों की शरणस्थली रहा है।
भारत में पहले से रह रहे हजारों अफगानियों ने हाल ही में शरणार्थी का दर्जा हासिल करने की गुहार लगाई है। संयुक्त राष्ट्र के घोषित ‘रिफ्यूजी’ होने के मायने हैं उन्हें कई तरह की मदद, रियायतें और सहूलियतें हासिल हो जाना। मगर दुनिया के कई देशों ने अफगानी नागरिकों के लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं क्योंकि अपनी आबादी और संसाधनों पर दबाव और तालिबानी वहशीपन के लिए बदनाम मुल्क के निशाने पर होने का जोखिम कोई देश नहीं उठाना चाहता।
तालिबानी संकट
यूरोपीय संघ के देश अफगानी नागरिकों को शरण देने के बारे में एक राय नहीं हैं। मगर तालिबानियों के चंगुल से निकलने की चाह वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, औरतों, बच्चों, न्यायाधीशों और पत्रकारों को शरण देने की बात वो जरूर कर रहा है। इसके मायने ये भी हैं कि दुनिया में कई बस्तियां फिर ऐसी होंगी जो जिंदा भर रहने के लिए अहसान तले दबी रहेंगी। डेनमार्क और आस्ट्रिया, चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड को इस बात का अंदेशा सता रहा है कि अफगानों के आने से उनके देश में मजहबी टकराव बढ़ेगा। इसी फिक्र में ऐसे तमाम देशों ने चौकसी बढ़ा दी है और अफगानिस्तान के जमीन पर ही जरूरतमंदों को मदद पहुंचाने की तैयारी चल रही है।
महफूज ठिकानों की तलाश में, खाने और जीवन के संघर्ष के बीच या फिर राजनीतिक-सांस्कृतिक तौर पर अपनी पहचान बनाए रखने या फिर से गढ़ने के लिए हर दौर में इंसान दर-बदर होता रहा है। अपनी मिट्टी से उखड़ कर गया, अपनी जान पर खेलकर सरहदें पार की, बस्तियां बसार्इं और अपनी नस्लों को आगे बढ़ाने के लिए कदम कदम पर जिल्लतें सहते हुए अपने निशां कायम किए या मिट गए। शरण में आया इंसान अपने देश में हो या गैर मुल्क में वो अपने वजूद के लिए, अपनी सांसों के लिए, अपनी उम्मीदें बचाए रखने के लिए हमेशा ही कागजों का मोहताज रहता हैै।
उजड़ने का दर्द
आज अफगानिस्तान छोड़कर जाते नागरिकों को देखकर पलायन, विस्थापन और शरणार्थियों का दर्द पूरी दुनिया के सामने उघड़ कर आया है। भारत को जब स्वाधीनता की कीमत बंटवारे के तौर पर चुकानी पड़ी थी तब भी दर्द का एक ऐसा ही समंदर उमड़ा था। अपना घर छोड़ने के घाव, पीढ़ियों की दुश्वारियां और लापता मरहम, ये सब हासिल हुआ था ब्रिटिश जज रैडक्लिफ को बंटवारे की रेखा खींचने के लिए मिली 40 दिन की मोहलत की बदौलत। बंटवारे के दर्द को ‘पार्टिशन हॉरर रिमेंबरेन्स डे’ की तरह मनाया जाना भारत का हालिया फैसला है। बंटवारे में मारे गए दस लाख लोग, बेघर हुए डेढ़ करोड़ और अपनी अस्मत पर आंच सहने वाली 83 हजार औरतों और बच्चियों के अलावा जो करीब चार लाख लोग भारत लौटकर आए, जिन्हें अपने ही देश में शरण लेनी पड़ी।
इसी देश ने 90 के दशक में कश्मीर में मचे कत्लेआम के बाद पलायन के लिए मजबूर किए गए चार लाख हिंदुओं का अपने ही देश में शरणार्थी की तरह शिविरों में रहना देखा। जिस दर्द के संग्रहालय हमने नहीं बनाए उसने अपने ही देश में पराए की तरह वक्तगुजारा। मजहब के नाम पर प्रताड़ित की गई इस आबादी के लिए न विश्व मंच से आवाज उठी और न ही मानवाधिकार के झंडे लहराए गए। इसीलिए ये गिनती में भी नहीं रही। जान की हिफाजत तो इस देश में फिर भी रही लेकिन पहचान और आत्मा की हिफाजत में हुकूमत भी चूक गई।
भारत की स्थिति
भारत में बसे ढाई लाख से ज्यादा शरणार्थियों में बड़ा हिस्सा श्रीलंकाई और तिब्बतियों का है। साठ के दशक में भारत में आने शुरू हुए बांग्लादेशी शरणार्थियों की हैसियत घुसपैठियों की रही है जो तकरीबन दो करोड़ की आबादी को पार कर वोट बैंक की सियासत के हत्थे चढ़ते रहे हैं। म्यांमा से आने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों की दस्तक को अनसुना करने के भारत के अपने तर्क हैं। संसाधनों पर बढ़ रहे दबाव और आबादी को काबू करने की जद्दोजहद वाला देश पहले से मौजूद शरणार्थियों की बेहतरी के लिए मन पक्का करते हुए बाकी दुनिया के बाहरी नागरिकों से साथ किए सलूक से सबक सीख सकता है।