राज्यसभा के पूर्व उप सभापति हरिवंश ने 1948 में ही मेक इन इंडिया की शुरुआत किए जाने की वकालत की और अपनी बात आगे बढ़ाते हुए (पीछे की बातचीत यहां पढ़ें) कहा कि भारत में टैलेंट की कमी नहीं है। भाभा ने बहुत पहले कहा था कि कैसे हमारे यहां चीजों पर काम हो। जब हम आजाद हुए उस वक्त जनरल कोडेडेरा सुबय्या थिमय्याजी (आज़ाद भारत की थलसेना के पहले भारतीय प्रमुख) को अपमानित होकर हटना पड़ा था। बहुत वर्षों तक यह कहा जाता रहा था कि वैसा जनरल अब तक भारत में नहीं हुआ। हम क्यों नहीं स्वावलंबी बने? हमारे पास टैलेंट, इंफ्रास्ट्र्रक्चर, सब कुछ था।
इजरायल में मुश्किल से एक करोड़ लोग होंगे। वहां करीब एक हजार डिफेंस कंपनियां हैं। साढ़े सात बिलियन डॉलर के हथियार दुनिया को बेचता है। हम भी उनसे खरीदते हैं। चीन हथियारों के मामले में 1975-78 तक लगभग भारत के बराबर था। क्या हुआ कि आज वह इतने बड़े पैमाने पर हथियार बनाने लगा, लेकिन हम नहीं बना रहे हैं। आजादी से पहले भी रक्षा क्षेत्र में दुनिया के बहुत सारे देशों से हम आगे थे, क्योंकि हमारी ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां बहुत अच्छी थीं, पहले की बनाईं हुईं। अनेक देश इस मोर्चे पर हमसे पीछे थे। आज हम बहुत पीछे हैं। पर हमें काम करना है मिलकर, जिससे हम आगे जा सकें।
इसी तरह सामाजिक क्षेत्र को लीजिए। जब मैं पॉर्लियामेंट में गया। देखा कि रोज सड़क पर एक्सीडेंट होते हैं। लाखों लोग मरते हैं। रोज आंकड़े आते हैं। कोर्ट में ट्रायल होता है। सुप्रीम कोर्ट फैसला देता है। हाई कोर्ट में फैसले आते हैंं। सरकारें कानून क्यों नहीं बना रही हैं? संयोग से मैं उस कमेटी में चला गया। द मोटर व्हीकल अमेडमेंट एक्ट अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा था, पहली बार यह 1988 में बदला गया था। राजीव गांधी के जमाने में।
1991 में इस देश में ऑटोमोबाइल रिवॉल्यूशन हो गया। परिणाम यह हुआ कि फर्ज करिए देश में 25 लाख गाड़ियां थीं, वह कई करोड़ हो गईं। दुर्घटनाओं की रफ्तार बढ़ गई। रोज न्यायालय में पीआईएल दाखिल होने लगे। एक्सीडेंट रोकने के मकसद सेे कानून नहीं बना। 2016 में इस पर कानून बनना शुरू हुआ। इस पर कमेटी वगैरह बन गई। अंत में 28 वर्षों बाद लगभग 2019 में इस सरकार ने कानून बनवाया।
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मैं एक अखबार में पढ़ रहा था कि 2008 से 2019 तक करीब 48 लाख एक्सीडेंट हुए हैं, जिनमें लगभग 13 लाख 82 हजार लोग मरे हैं। जितने लोग एक्सीडेंट में मरे हैं, वह संख्या स्लोवानिया की आबादी के बराबर है।
मैं पार्लियामेंट में अक्सर सुनता था। अखबरों में भी पढ़ता था। बाकी विधायिकाओं में भी सुनता था कि खाद्याान्न में इतनी मिलावट हो रही है कि उससे कैंसर हो रहा है। रोज ही सवाल उठता था। हर दल के लोग मिलकर उठाते थे। लेकिन फूड अडल्टरैशन एक्ट, 1954 बदला 64 साल बाद 2018 में। क्यों इतने वर्ष लगे?
इसी तरह बेनामी ट्रांजैक्शन निषेध अधिनियम 1988 में आया। कोई कानून नहीं बना। 28 साल बाद कानून बना जिसमें अधिकारी को बेनामी संपत्ति को अटैच करने का अधिकार दिया गया। भ्रष्टाचार पर 1952 से बात होती रही। मुझे लगता है कि जो सबसे बड़ा ब्लंडर हुआ वह यह कि पंडित नेहरू अपने सपने को साकार नहीं कर सके। पंडितजी ने कहा था कि मैं देखना चाहता हूं कि भ्रष्टाचारी चौराहे पर लैम्प पोस्ट के खंभे पर फांसी पर लटकें। लेकिन, उसी वक्त वीके कृष्णा मेननजी के जमाने से जीप स्कैंडल शुरू हुआ। बाद में रक्षा सौदों में क्या होने लगा यह गुत्थी आज तक मेरी समझ में नहीं आई।
भ्रष्टाचार के बारे में कहना चाहूंगा कि लाल बहादुर शास्त्रीजी ने एक कमेटी बनाई थी। जय प्रकाश नारायणजी ने जो आंदोलन शुरू किया था उसमें मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार के खिलाफ था, लेकिन सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार बढ़ा। कमेटियां बढ़ती गईं, ब्लैक मनी बढ़ता गया। बेनामी ट्रांजैैक्शन बढ़ते गए। लेकिन कानून नहीं बना। और यह स्थिति हो गई कि ब्लैक मनी वाले इतने ताकतवर हो गए कि किसी को कुछ समझते नहीं थे। उनका यह साहस हो गया कि शेल कंपनियां बनाईं गईं इस देश में।
इंटरव्यू का अनएडिटेड वीडियो (पार्ट-1) यहां देखें:
मैं उन शेल कंपनियों के साहस की एक घटना बताता हूं। यह कलकत्ता से ओरिजिनेट हुईं और देश के हर महानगर में, जहां बड़े-बड़े उद्योग रहे वहां पनपीं। छोटे-छोटे शहरों तक आईं। कलकत्ता में ही उन्होंने पता दिया, लाल बाजार पुलिस थाने का। पनामा पेपर्स में लिखा हुआ है। कलकत्ता की 200 -250 शेल कंपनियों ने अपना पता दिया लाल बाजार पुलिस थाना का। उनकी ताकत कितनी बढ़ गई थी कि वे समझने लगे थे कि ये थाने वाले हमारे लिए कुछ नहीं हैं।