आजादी के वक्त भारत 500 से ज्यादा रियासतों में बंटा हुआ था। मुश्किलें तो कई रियासतों के विलय में आयीं, लेकिन कश्मीर का मामला सबसे जटिल रहा। पाकिस्तान धर्म के आधार पर बना था, बंटवारा भी उसी तरह हो रहा था। ज्यादातर मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान का हिस्सा बन रहे थे, जम्मू-कश्मीर की लगभग तीन चौथाई आबादी मुसलमानों की थी।
लेकिन हिंदू राजा हरि सिंह मुस्लिम देश का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे। साथ ही वह लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ मिलकर अपनी ताकत भी कम नहीं करना चाहते थे। ऐसे में जम्मू-कश्मीर उन चंद रियासतों में एक था, जो लम्बे वक्त तक स्वतंत्र रहने की मांग दुहराता रहा। लेकिन पाकिस्तान से आए कबायलियों के हमले के बाद डोगरा राजा हरि सिंह को भारत में विलय के लिए राजी होना पड़ा।
कश्मीर की जटिलता को लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जो फैसले लिए उसके लिए आज भी उनकी आलोचना होती है। लेकिन विलय से पहले कश्मीर को लेकर देश के हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों की स्थिति क्या थी, उस पर चर्चा बहुत कम हुई है।
संघ नेता और भारत का विलय
रिटायर्ड वैज्ञानिक दत्ताप्रसाद दाभोलकर द वायर पर लिखे अपने लेख में बताते हैं कि बलराज मधोक ने स्वतंत्र कश्मीर का समर्थन किया था। उन्होंने कहा था, ”हम हमेशा चाहते हैं कि कश्मीर एक स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र यानी एक स्वतंत्र और संप्रभु हिंदू राष्ट्र के रूप में मौजूद रहे।” मधोक खुद मूल रूप से जम्मू-कश्मीर के निवासी थे। वह राजा हरि सिंह की समर्थक संस्था ऑल जम्मू एंड कश्मीर राज्य हिंदू सभा के विचारक भी थे। बाद में मधोक आरएसएस और जनसंघ से भी जुड़े रहे।
ऑल जम्मू एंड कश्मीर राज्य हिंदू सभा की स्थापना 1909 में हुई थी। यह मूल रूप से डोगरा हिंदुओं का संगठन था। 1947 में इसे प्रेम नाथ डोगरा लीड कर रहे थे। प्रेम नाथ डोगरा जम्मू में आरएसएस के अध्यक्ष भी बने थे। मई 1947 में ऑल जम्मू एंड कश्मीर राज्य हिंदू सभा ने महाराज के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराते हुए एक प्रस्ताव में कहा – हम पूरी तरह महाराजा के साथ हैं। वह विलय के मुद्दे पर जो कर रहे हैं या करेंगे, हम पूरी तरह से उसके समर्थन में हैं।” इस प्रस्ताव का जिक्र अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी किताब ‘कश्मीरनामा’ में भी मिलता है।
दाभोलकर अपने लेख में फरवरी 1947 की घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं, ”सावरकर और आरएसएस नेता गोलवलकर दोनों ही कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के शाही मेहमान थे। फरवरी 1947 से ही जम्मू-कश्मीर हिंदू सभा की केंद्रीय कार्यसमिति ने घोषणा की थी कि कश्मीर की रियासत को भंग करने के बजाय कश्मीर को एक स्वतंत्र संप्रभु हिंदू राष्ट्र बनाया जाना चाहिए। सभा ने 15 अगस्त 1947 को भारतीय तिरंगा फहराने की बजाय कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का झंडा फहराया था।”
वरिष्ठ पत्रकार बलराज पुरी के हवाले से दाभोलकर लिखते हैं, ”जब यह तय हो गया कि विभाजन रुकने वाला नहीं है, तब भी महाराजा भारत में शामिल होने के मूड में नहीं थे। उन्हें जम्मू में वफादार हिंदू नेताओं का समर्थन प्राप्त था, जिन्होंने जोरदार तर्क दिया था कि एक हिंदू राज्य जम्मू और कश्मीर का एक धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ विलय नहीं करना चाहिए।”
जब कबायली हमले के बाद 26 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया, उसके बाद नवंबर 1947 में बलराज मधोक की देखरेख में प्रजा परिषद का गठन हुआ। प्रेम नाथ डोगरा और अन्य भी जल्द ही इसमें शामिल हो गए। जो लोग स्वतंत्र कश्मीर के पक्ष में थे, वही लोग नई पार्टी बनाकर भारत के साथ जम्मू और कश्मीर के “पूर्ण एकीकरण” की बात करने लगे। मधोक के अनुसार, पार्टी का उद्देश्य कश्मीर का भारत में ठीक से विलय और शेख अब्दुल्ला की “कम्युनिस्ट-प्रभुत्व वाली डोगरा सरकार” का विरोध करना था। इसी पार्टी ने सबसे पहले अनुच्छेद 370 का भी विरोध किया था।