मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब एक यूट्यूब चैनल से बात करते हुए बताते हैं कि मुगल काल में भी खूब होली खेली जाती थी। वह कहते हैं, “रंग फेंकना इतिहास का एक हिस्सा है। मुगल जमाने की पेंटिंग मौजूद हैं। खासतौर से जहांगीर की पेंटिंग बहुत मशहूर है। मोहम्मद शाह पिचकारी के साथ होली खेलते थे। मुगल शासक अपने दरबारियों के साथ होली खेला करते थे। वह हरम में, घर में, अपनी बीबियों के साथ खूब रंग खेला करते थे।”
मुगल काल की होली
होली को उत्सव की तरह मनाने के साक्ष्य मुगल काम में भी मिलते हैं। द स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लाल किले या किला ए मोअल्ला में ईद के समान ही होली मनाई जाएगी। इसे ईद ए गुलाबी कहा जाता था। होली के मौके पर यमुना के तट पर लाल किले के पीछे मेला लगा करता था। किले से राज घाट तक भारी भीड़ जुटती थी।
मेले में तरह-तरह के वाद्ययंत्र बजाने वाले होते थे। संगीतकारों और कलाकारों का समूह लाल किला किले के पास इक्ट्ठा होकर अपनी प्रतिभा दिखाते थे। मिमिक्री आर्टिस्ट बादशाहों, राजकुमार और राजकुमारियों की नकल करते, जिसे उस दिन अपराध नहीं माना जाता था।
रानियाँ, राजकुमारियाँ और कुलीन महिलाएँ अपने झरोखों में बैठकर इसका आनंद लेती थीं। बादशाह इन कलाकारों को खूब इनाम देते थे।
रात में लाल किले में रात भर नाच-गाने के साथ होली का भव्य आयोजन होता था। देश भर से प्रसिद्ध गणिकाएं वहां पहुंचती थीं। शहर भर में जगह-जगह महफिलें जमती थीं, जिनमें रईस, व्यापारी और दुकानदार सभी मौज-मस्ती करते थे।
होली के दीवाने थे आखिरी मुगल
आख़िरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को होली का दीवाना माना जाता था। वह बहुत उत्साह के साथ होली मनाते थे। आखिरी मुगल होली के उत्सव में इस कदर शामिल हो जाया करते थे कि अपनी प्रजा के साथ घुलमिल जाते थे। बहादुर शाह जफर के लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं:
क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी
देख कुंवरजी दूंगी गारी
भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात
थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं
आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी