चर्चा तो ये रही कि ये फिल्म हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के जीवन के एक अध्याय पर केंद्रित है। लेकिन ये आशिंक सच है। ये ठीक है ओम प्रकाश चौटाला ने जेल में रहते हुए बारहवीं की परीक्षा पास की थी और इस फिल्म में भी काल्पनिक राज्य हरित प्रदेश का मुख्यमंत्री गंगा राम चौधरी (अभिषेक बच्चन) जेल मे रहते हुए दसवीं की परीक्षा देता है।
फिल्म की भाषा भी हरियाणवी है। बस इतना ही साम्य है। आगे की कहानी कुछ अलग दिशा में मुड़ जाती है। आगे सवाल ये खड़ा हो जाता क्या चौधरी गंगाराम ये परीक्षा पास कर पाएगा क्योंकि उसकी मुख्यमंत्री बनी पत्नी (निमरत कौर) ही नही चाहती कि गंगा राम जेल से वापस लौटे और फिर से राजनीति में आए।
‘दसवीं’ दो दिशाओं में आगे बढ़ती है। एक तो ये राजनीति के दांवपेंच दिखाती है और दूसरी ये हास्य से भरपूर है। इसलिए बीच-बीच में जम के हंसाती भी रहती है। लेकिन अंत तक पहुंचते पहुंचते ये व्यक्तित्व के बदलने की कहानी में तब्दील हो जाती है। जेल में गंगाराम की सोच मे परिवर्तन आने लगता है और इसके पीछे है जेल की कड़क सुपरिटेंडेंट (यामी गौतम) और जेल के कुछ कैदी। उनकी वजह से गंगा राम को लगता है कि उसने शिक्षा नहीं पाकर बड़ी गलती की और वो पढ़ाई शुरू करता है और दसवीं की परीक्षा देता है।
क्या वो दसवीं पास कर पाएगा और फिर से राजनीति में वापस लौट पाएगा? इसी मुद्दे पर पूरी फिल्म टिकी है। अभिषेक बच्चन शुरू शुरू में तो हरियाणवी बोलते हए ठीक से नहीं जमते लेकिन जिस तरह जेल के जीवन में उनके भीतर बदलाव होते है वो पहलू रोचक और दिलचस्प है। यामी गौतम भी आरंभ में एक अनुशासन प्रिय पुलिस अधिकारी के रूप में नजर आती हैं, लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है उनके दिल का एक कोना पिघलने लगते है।
निम्रत कौर का साधारण और भोली भाली औरत से खुर्राट नेता के रूप में बदलना दिलचस्प है। अंत को छोड़ दें तो निमरत का किरदार दूसरे कलाकारों पर कई जगहों पर भारी पड़ता है। सीमित अर्थों में ही सही ‘दसवीं’ सकारात्मक सोच पैदा करने वाली फिल्म है।