भारत के 28 सूबों में फिलहाल 4033 विधायक हैं। लेकिन मुस्लिम तबके की बात की जाए तो केवल 220 विधायक ही ऐसे हैं जो इस समुदाय से हैं। पश्चिम बंगाल की असेंबली में सबसे ज्यादा इस तबके के विधायक हैं। यहां उनकी तादाद 44 है। जबकि आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे यूपी में इनकी तादाद महज 25 ही पहुंच सकी। देश में कई सूबे ऐसे भी हैं जहां पर एक भी मुस्लिम विधायक नहीं बन सका है।
पश्चिम बंगाल के बाद सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक असम और केरल से हैं। यहां 32-32 विधायक मुस्लिम तबके के हैं। इसके बाद यूपी की नंबर आता है। महाराष्ट्र और बिहार को छोड़ दिया जाए तो बाकी सूबों में मुस्लिम विधायकों की तादाद दहाई तक भी नहीं है। बिहार से 19 व महाराष्ट्र से केवल 10 मुस्लिम ही जीतकर असेंबली में पहुंच सके।
दैनिक भास्कर की रिसर्च के मुताबिक राजस्थान और तेलंगाना इस मामले में एक से हैं। दोनों जगहों से 8-8 मुस्लिम विधायक हैं। तमिलनाडु से 6, दिल्ली से 5, आंध्र प्रदेश से 4, गुजरात, हरियाणा व मणिपुर से 3-3 मुस्लिम विधायक हैं। एमपी, उत्तराखंड, ओडिशा, त्रिपुरा से 2-2 मुस्लिम असेंबली पहुंचे हैं। छत्तीसगढ़, पुडुचेरी और पंजाब से 1-1 ही मुस्लिम विधायक है तो मेघालय, हिमाचल, मिजोरम, गोवा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं बन सका।
सांसदों की बात की जाए तो आंकड़ों बताते हैं कि 1980 से 2014 तक लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या आधे से भी कम हो चुकी है। 1980 में 49 मुस्लिम संसद पहुंचे थे। जबकि 2014 में यह आंकड़ा 23 पर आ गया। हालांकि 2019 में मुस्लिम सांसदों की संख्या 23 से बढ़कर 27 पहुंच गई, लेकिन आबादी में हिस्से के लिहाज से इसे नाकाफी ही कहा जाएगा। इसमें एक भी सांसद आज के सबसे बड़े दल बीजेपी से नहीं है।
हालांकि, भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है और इसके साथ मुस्लिमों की तादाद में भी इजाफा हो रहा है। लेकिन उनका प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई मुस्लिम नेता नहीं उभर पा रहा है जिसे ये समुदाय एक स्वर में अपना मानता हो। ओवैसी हैं तो उनकी पहुंच बेहद सीमित है। हैदराबाद के अलावा वो बिहार में ही थोड़ा बहुत असर छोड़ पाए। बाकी जगह फुस्स ही रहे।
जानकारों का कहना है कि मुसलमानों के बीच ऐसे नेता नहीं उभरते जो दूसरे समुदायों में भी स्वीकार्य हों। कोई ऐसा नेता उभरता भी है तो राजनीतिक दल कोशिश करते हैं कि उन्हें उन्हीं जगहों से टिकट दिया जाए, जहां मुसलमान निर्णायक भूमिका में हों। ऐसे में उन नेताओं की कभी भी सर्वस्वीकार्य छवि नहीं बन पाती है। वे जब मुस्लिम-बहुल इलाकों से भी खड़े होते हैं तो गैर-मुस्लिम उन्हें ठीक से स्वीकार नहीं कर पाते हैं और उनका जीतना वहां से भी जीत पाना मुश्किल होता है।