किसी वजह से फसल चौपट होने पर तो किसान मुसीबत में रहता ही है, पैदावार अच्छी हो तब भी अक्सर वाजिब दाम न मिलने से वह खुद को ठगा हुआ पाता है। खेती को लाभकारी बनाने के लिए कृषि विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, पर्यावरणविदों की एक संयुक्त समिति गठित की जाए, जो इस पर अपनी सिफारिशें दे।
‘एक आदमी रोटी बेलता है/ एक दूसरा आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है/ न रोटी खाता है/ वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूँ/ यह तीसरा आदमी कौन है/ मेरे देश की संसद मौन है।’ धूमिल ने जब ये पंक्तियां लिखी थीं तो उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि सोलहवीं लोकसभा के आते-आते यह तीसरा आदमी रोटी के साथ खेलते हुए रोटी बेलने वाले का चोला ओढ़ कर खुद ही सारी रोटी खाने भी लगेगा। आज देश का वास्तविक अन्नदाता हमारी भूख मिटा कर, बहुतेरे सरकारी जतन किए जाने के बाद भी काल का ग्रास बनने को मजबूर हो रहा है।
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के पूर्व अध्यक्ष द्वारा सूचना का अधिकार के तहत हासिल जो आंकड़े कृषि क्षेत्र से प्राप्त आय और देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से अनुपात के संदर्भ में आए हैं, वे न केवल चौंकाने वाले बल्कि पहली ही नजर में किसानों की दशा सुधारने की आड़ में एक अंतराल से चल रही लूट-खसोट को भी उजागर करते हैं। इन आकड़ों को समझने के लिए पहले हमें कुछ बुानयादी बातों को समझना आवश्यक है।
किसी भी देश को उसकी आर्थिक संरचना के अनुसार कृषक अर्थव्यवस्था, औद्योगिक अर्थव्यवस्था, या सेवा अर्थव्यवस्था के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था को इनमें से किसी भी खाने में प्रत्यक्ष रूप से नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इस वर्गीकरण का आधार राष्ट्रीय आय में उस क्षेत्र से प्राप्त आय का योगदान और उस क्षेत्र में संलग्न आबादी का जनसंख्या का पचास फीसद होना जरूरी होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सेवा क्षेत्र से प्राप्त आय तो पचास फीसद से अधिक है लेकिन इस क्षेत्र में लगी आबादी का हिस्सा बत्तीस फीसद के लगभग ही है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान जैसे देशों में कृषि में संलग्न आबादी और राष्ट्रीय आय में इस क्षेत्र के योगदान में समानुपातिक संतुलन की अर्थव्यवस्था की मजबूती में सर्वाधिक भूमिका रही है। भारतीय संदर्भ में यह अनुपात हमेशा से विषमता का उदहारण रहा है, जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था असमानता की खाई को बढ़ाते हुए ही निरंतर आगे बढ़ रही है।
आजादी के पूर्व से भारत एक कृषक अर्थव्यवस्था रहा; 1950-51 में कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 55.4 फीसद था। लेकिन ब्रिटेन, जापान, अमेरिका, जर्मनी में औद्योगीकरण की सफलता की तर्ज पर भारत में भी बिना किसी दीर्घ-दृष्टि, ठोस रूपरेखा, अनुकूल परिस्थिति और प्रबल तयारी के दूसरी पंचवर्षीय योजना (महाल नोबिस मॉडल) में औद्योगिक क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख प्रेरक बल घोषित कर बड़े पैमाने पर भारी उद्योग लगाए गए। औद्योगिक विकास पर उच्चस्तरीय ध्यान दिया गया और भारतीय औद्योगिक नीतियां अर्थव्यवस्था की राष्ट्रीय नीति का पर्याय बन गर्इं। कुछ हद तक सफलता भी मिली। लेकिन जिस देश में सत्तर फीसद आबादी (उस समय) कृषि पर निर्भर हो, वैसे में बिना इस क्षेत्र को लाभकारी बनाए औद्योगिक उत्पादों के बाजार को सफल नहीं बनाया जा सकता था। इसी वजह से 2002 में पुन: कृषि क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख प्रेरक बल घोषित किया गया।
भारत के संदर्भ में कृषि क्षेत्र का अर्थव्यवस्था के साथ गहरा संबंध है। कृषि क्षेत्र के उत्पाद में एक फीसद की बढ़ोतरी होने के परिणामस्वरूप औद्योगिक क्षेत्र में 0.5 फीसद और राष्ट्रीय आय में 0.7 फीसद की वृद्धि होती है। इतनी विशाल आबादी वाले देश में औद्योगिक विकास की मजबूत शुरुआत के लिए सर्वप्रथम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भता को ध्यान में रख कर 1966-67 में तीन एकवर्षीय योजनाओं के साथ देश में हरित क्रांति की शुरुआत से हम खाद्यान्न में आत्मनिर्भर तो हो गए, लेकिन अपने दूसरे चरण के समापन तक पहुंचते-पहुंचते इसकी खामियां भी खुलकर सतह पर आ गर्इं। हरित क्रांति का आधार बड़े आकार वाली जोत, ऊंची लागत वाले हाइब्रिड बीज और रासायनिक उर्वरक, अत्यधिक सिंचाई की जरूरत होने के कारण इसका लाभ बस पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और देश के कुछ अन्य इलाकों में केवल बड़े किसानों (जिनके पास छह हेक्टेयर या उससे ज्यादा कृषिभूमि हो) ने उठाया। भूमिहीन, छोटे-मझोले तथा सीमांत किसानों पर इसका विपरीत असर पड़ा। महंगे बीज और उर्वरक के दबाव से कृषि अब उनके लिए घाटे का धंधा होने लगी। इसका प्रत्यक्ष उदहारण है पंजाब है, जो हरित क्रांति में अग्रणी रहा, पर आज वहां भी अधिकतर किसानों की हालत बेहद खराब है और जिन राज्यों में किसानों की खुदकुशी की घटनाएं सबसे ज्यादा हुई हैं उनमें पंजाब भी शामिल है।
भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने तथा इनके जीवन-स्तर में सुधार लाने के लिए कृषि से प्राप्त शुद्ध आय को आय कर से मुक्त रखा गया है। भूमिहीन, छोटे एवं सीमांत किसानों और बड़े किसानों द्वारा अर्जित कृषि आय का बुनयादी वर्गीकरण कर उस पर ‘आय कर’ न आरोपित करने से ही वह गलियारा निर्मित हुआ, जिससे होकर कुछ धन्ना सेठ और उद्योगपति किसान के रूप में कृषि आय के सहारे अपनी मोटी कमाई पर बिना कर चुकाए निकलने लगे। छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति में सुधार के लिए दी जाने वाली राहत की आड़ में बड़े किसान और जमींदार उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति से लबरेज होकर आज आधुनिक ढंग का विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इनकी इस जीवन शैली से प्रेरित होकर आज उद्योग जगत, फिल्म जगत, खेल जगत और राजनीतिक जगत के चर्चित चेहरे अपने नाम के आगे किसान लगा कर उस वास्तविक अन्नदाता को शर्मसार कर रहे हैं, जो आज भी गरीबी और कर्ज के कुचक्र में रहने को अभिशप्त है।
सीबीडीटी के पूर्व अध्यक्ष द्वारा दाखिल आरटीआइ से मिले जवाब के अनुसार वर्ष 2010-11 में भारत का कुल जीडीपी 78,77,947 करोड़ रु था, जिसमें 1319 करोड़ रु कृषि आय के सम्मिलित थे। इसी वर्ष में साढ़े छह लाख किसानों द्वारा कुल कृषि आय का योग उस वर्ष के कुल जीडीपी का पच्चीस गुना था। यह आंकड़ा साल-दर-साल लगभग ऐसे ही चलता रहा जिसे असंभव की ही संज्ञा दी जा सकती है। अब सीबीडीटी इन आंकड़ों को विश्लेषित कर ऐसे लोगों की सूची अलग कर रहा है, जिन्होंने कृषि से अर्जित आय के रूप में एक करोड़ रु से अधिक राशि की जानकारी देकर आय कर से छूट प्राप्त की है। सीबीडीटी ने इस मामले में मनी लॉन्ड्रिंग जैसे अपराध होने की भी बात कही है। इस मामले को लेकर पटना उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की जा चुकी है। यह अब जांच का विषय है कि किसानों को दी जा रही आय कर से छूट का लाभ कर-चोरी, काला धन के संग्रह और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे अपराधों के जरिए उठाया जाता रहा और सरकारी खजाने में चुपचाप सेंधमारी किन-किन तरीकों से सरकार की नाक के नीचे सालों-साल चलती रही।
भारत में कृषि और इससे संबंधित पेशों में लगे ग्रामीण परिवारों, भूमिहीन, छोटे तथा सीमांत किसानों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। समाज का यह वर्ग जो आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लगातार पिछड़ता जा रहा है, इसकी स्थिति में सकारात्मक और लाभकारी परिवर्तन लाने के लिए यह आवश्यक है कि एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें इनके हित में लिए गए योजनागत और नीतिगत निर्णयों का लाभ बीच में बड़े तथा ‘उद्योगपति किसानों’ की सेंधमारी के बिना इन तक प्रत्यक्ष रूप से पहुंच सके। कृषि क्षेत्र को लाभकारी बनाने के लिए अब तक किए गए प्रयास जैसे भूमि सुधार, फसल बीमा योजना, किसान आय बीमा योजना, बीज बैंक, किसान चैनल, मुआवजा प्राप्ति के लिए खराब हुई फसल सीमा को पचास प्रतिशत से हाल ही में घटा कर तैंतीस प्रतिशत करना, आदि नाकाफी ही साबित हुए हैं।
किसी वजह से फसल चौपट होने पर तो किसान मुसीबत में रहता ही है, पैदावार अच्छी हो तब भी अक्सर वाजिब दाम न मिलने से वह खुद को ठगा हुआ पाता है। खेती को लाभकारी बनाने के लिए कृषि विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, पर्यावरणविदों की एक संयुक्त समिति गठित की जाए, जो इस पर अपनी सिफारिशें दे। सरकार उन सिफारिशों को आधार बना कर भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए विश्व व्यापर संगठन और विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के प्रभाव से मुक्त होकर एक नई कृषि नीति की रूपरेखा तैयार करे।
भारतीय संदर्भ में मजबूत, सशक्त और समावेशी अर्थव्यवस्था बनाने का आधार यह होना चाहिए कि औद्योगिक क्षेत्र प्रमुख प्रेरक बल के रूप में अर्थव्यवस्था को दिशा प्रदान करे और उस औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में विभिन्न कौशल विकास योजनाओं के माध्यम से जहां तक संभव हो कृषि क्षेत्र में संलग्न लोगों को लगाया जाए, क्योंकि भारतीय कृषि के मानसून तथा मौसम आधारित होने से किसान वर्ष में अधिकतर समय प्रच्छन्न बेरोजगारी के चलते अनुत्पादक बने रहते हैं।
इस क्रम के अगले चरण में अतिरिक्त आय प्राप्त होने से किसानों के लिए कृषि बस जीवन निर्वाह का जरिया न होकर एक लाभकारी पेशा बनने की ओर अग्रसर होगी। और इस लाभ से कृषि में नवाचार के लिए प्रेरणा मिलेगी, साथ ही औद्योगिक उत्पाद के बाजार में भी विस्तार होगा। मांग के इस विस्तार को पूरा करने के लिए रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन होगा, साथ ही इसका असर सेवा क्षेत्र के विस्तार पर भी पड़ेगा। इस प्रकार अर्थव्यवस्था के तीनों प्रमुख क्षेत्र एक-दूसरे से संतुलित होकर अपने समावेशी रूप में आगे बढ़ेंगे।