ललिता जोशी
मनुष्य की प्रवृत्ति है कुछ अलग करने के साथ-साथ अन्य लोगों से खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश करना और यह दिखाना कि मैं जो कर सकता हूं, वह दूसरा कोई नहीं कर सकता। इसीलिए धरती पुत्र मनुष्य को हवा और हवाई यात्राएं पसंद आ गईं और उसने हवाई-मार्ग को अपनी यात्रा का साधन बना लिया। तकनीकी विकास और विज्ञान के जोर के दौर में यह स्वाभाविक भी रहा।
फिर वक्त की रफ्तार के तेज होने और आवाजाही के साधनों के विस्तार के बीच आजकल कम समय में अधिक की चाहत ने मनुष्य को भी बहुत तेज रफ्तार बना दिया है। इसीलिए वे कम समय में अधिक काम, अधिक कमाई, अधिक ऊंचाई प्राप्त करना चाहते हैंं, तो इसका सीधा असर यात्राओं के मामले में भी पड़ा है।
किसी जमाने में हवाई जहाज से यात्रा धनी तबकों या रईसों की पहुंच में था, इसलिए उनका ही शगल होता था। लेकिन अब स्वतंत्र भारत में महंगाई की मुश्किल के बीच सफर के विकल्पों में अड़चन पैदा होने की वजह से या फिर किसी अन्य वजह से हवाई जहाज से सफर करने वालों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है।
पर्यटन और वाहन का सफर आयोजित करने वाली कंपनियां भी ग्राहकों को लुभाने के लिए एकमुश्त रकम में पर्यटन यानी ‘पैकेज टूर’ के कई विकल्प प्रदान करती हैं। यहां तक कि बैंकों से कर्ज की व्यवस्था भी करवा दी जाती है। यानी पर्यटन अब ज्ञान अर्जित करने की भूख, जरूरत और शौकिया के दायरे से बढ़ कर खालिस व्यवसाय होने की ओर बढ़ रहा है, जहां चंद रोज कहीं घूमने के बदले कई महीने तक कर्ज चुकाने की व्यवस्था बन रही है।
गर्मी के दिनों के अवकाश में या फिर विवाह के बाद ‘हनीमून’ के लिए लोगों को विदेश यात्रा के विभिन्न प्रकार के पैकेज का आकर्षण विज्ञापनों के माध्यम से दिया जाता है। किस्तों में चुकाने का प्रलोभन भी दिया जाता है कि पहले आप घूम के आएं और बाद में भुगतान करें। फिर क्या है, पहले ही घर और वाहनों आदि के जरिए कर्ज के जाल को अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर चुका बेचारा आम आदमी आ जाता है इस चक्कर में भी। इसके बाद वह सोचता है कि अपना रुतबा बढ़ाने की साख में विदेश यात्रा या फिर देश में ही यात्रा करनी हो तो करेंगे यात्रा हवाई मार्ग से।
सड़क और रेल जैसे विकल्पों के सिमटने के दौर में आजकल किसी भी समय हवाई अड्डे पर भीड़ ही भीड़ नजर आएगी। बेचारे हवाई अड्डे को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं होती। हर वक्त यात्रियों और कर्मचारियों, हवाई जहाजों की आवाजाही बनी रहती है और बेचारे हवाई जहाज यात्रियों को लाते-ले जाते थक जाते हैं। हाल के दिनों में हवाई जहाजों में गड़बड़ियों के सिलसिले यों ही नहीं दिखने लगे हैं।
कुछ साल पहले तक हवाई जहाजों में सह-यात्रियों के साथ अभद्र व्यवहार के समाचार सुनने को नहीं मिलते थे। लेकिन अब विमान परिचारिकाओं से भी कई बार कुछ यात्री अभद्र व्यवहार करते हैं। ऐसे यात्रियों को लगता है कि टिकट का पैसा दिया है तो कुछ भी करने की छूट मिल गई। दरअसल, आधुनिकता के चरम की ओर बढ़ते इक्कीसवीं सदी का तथाकथित सभ्य मनुष्य आज स्वेच्छा और स्व्च्छंदता में जीना चाहता है।
लेकिन यह तथाकथित सभ्य मनुष्य अपनी सहूलियत के लिए दूसरों को कष्ट देने से भी बाज नहीं आता। वायुमार्ग से यात्रा करने को प्राथमिकता देने वाले लोग अपने में मशगूल, लेकिन दूसरों के मामले में टांग अड़ाने को उत्सुक रहता है। ये स्वभाव की दो विपरीत प्रवृत्तियां हैं। लगता है कि आज का मनुष्य ‘बाईपोलर डिसआर्डर’ या फिर मतिभ्रम का शिकार है। शायद इसीलिए ऐसे व्यवहार आम होते जा रहे हैं।
लघुशंका जैसे कुदरती जरूरत पर किसी का नियंत्रण नहीं है, लेकिन इसके निपटान के लिए हवाई जहाजों में पूरी व्यवस्था रहती है। यह तो जाहिर बात है कि यात्रियों को थोड़ी बुनियादी जानकारी होगी ही वायुयान के शौचालय के इस्तेमाल की। उस पर ‘बिजनस क्लास’ में यात्रा करने वालों का रोब तो कुछ और ही होता है। लेकिन ऐसे यात्री भी होते हैं, जो शौचालय जाने की जहमत न उठा कर जहां होते हैं, वहीं उत्पात मचा देने पर उतारू हो जाते हैं। हाल ही में एक यात्री ने एक महिला से ऐसी हरकत कर दी। इस तरह की हरकतों से किसी को शायद ही फर्क पड़ता है, जिसके साथ ऐसा होता है, उस पर चाहे जो गुजरे।
विडंबना यह है कि विमान के कर्मचारी ऐसी हरकतों को गंभीरता से लेने के बजाय उसे रफा-दफा करने की कोशिश करने लगते हैं। शायद कंपनी की साख का सवाल होता होगा। लेकिन जब कंपनी पर जुर्माना लगता है तब बात समझ में आती होगी। सीधा-सा मामला है। या तो लोग सफर के दौरान अपने स्तर पर सभ्यता और सलीका सीखें, ताकि उनके व्यवहार और बात से उनके किसी सहयात्री को दिक्कत न हो या फिर उन्हें कानून सबक दिया जाए। काश कि लोगों के भीतर ऐसी समझ विकसित होती कि कानून को लागू करने की नौबत नहीं आती!