दुनिया मेरे आगे: तारीख में तब्दील परंपराएं
कई साल पहले जब अपने विदेश में रहने के दौरान हम परिवार सहित एक शाम खाना खा रहे थे तो यह बात आई कि एक परिचित ने नया घर लिया है और हो सकता है कुछ दिन बाद वे अपने नजदीकी मित्रों को बुला कर उस दिन कोई समारोह करना चाहें।

संतोष उत्सुक
उनके मकान में जगह भी ज्यादा है। वहां सभी मित्र मिल कर हंस-खेल लेंगे और त्योहार भी मना लिया जाएगा। लेकिन एक राय यह थी कि हमें दीपावली के दिन घर पर ही रह कर अपने परिवार सहित त्योहार मनाना चाहिए। इन दोनों विचारों में थोड़ी जद्दोजहद हुई और फिर मुझे लगा कि जब आपस में प्यार करने वाले, स्नेह रखने वाले कुछ यार-दोस्त मिल कर आनंद मनाते हैं, तभी त्योहार हो जाता है। हमने पहले अपने घर में पूजा की और बाद में उस नए घर की छत के नीचे कई परिवारों ने मिल कर खाया-पिया, गाने-नाचने के साथ अच्छा समय बिताया। सामूहिक आनंद ही त्योहार हो गया।
दरअसल, भारतीय संस्कृति में किसी खास तिथि को त्योहार मनाया जाता है। साल के समापन से पहले ही अगले साल होने वाली छुट्टियों की सूची घोषित हो जाती है उसमें सभी त्योहारों बारे पूर्व सूचना भी दर्ज होती है। हालांकि रविवार या शनिवार के नियमित अवकाश के दिन पड़ने वाले त्योहारों के बारे में जान कर यह बुरा माना जाता है कि एक छुट्टी मारी गई, क्योंकि राष्ट्रीय पर्व या त्योहार हमारे लिए छुट्टी ही तो हैं।
होली और दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है, लेकिन जैसे-जैसे बाजार का कब्जा जिंदगी पर बढ़ रहा है, पारिवारिक, राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक स्वार्थ पनप रहा है, मानवीय रिश्ते सिकुड़ रहे हैं, त्योहार लगभग औपचारिकता बन कर रह गए हैं। कई आम त्योहारों और यहां तक कि नए वर्ष के मौके पर भी उपहार देने की परंपरा व्यावसायिक प्रारूप में तब्दील हो चुकी है।
अधिककतर लोगों द्वारा यह अवसर रिश्तों को सींचने में प्रयोग किया जाने लगा है। किसी जमाने में घर में ही लोग मिल-बैठ कर बात करते थे और फिर तय होने के बाद रसोई में ही पारंपरिक पकवान मिठाइयां तैयार की जाती थीं। उनमें समय और मेहनत लगने और परिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा हाथ बंटाने के कारण आपसी रिश्तों में उत्सवी मिठास भी बढ़ती जाती थी। पुराने पकवानों के स्वाद के साथ उनको बनाने की विधियां और नुक्ते भी परिवार में शामिल होने वाले नए वयस्क लोगों के हाथों में पहुंच जाया करते थे।
अब वक्त के साथ बढ़ती जरूरतों ने संयुक्त परिवार परंपरा को नष्ट किया तो परंपराएं भी आधी-अधूरी होती गर्इं। रसोई संस्कृति को भी बिखराव सहना पड़ा, जिसका असर त्योहारों पर भी पड़ना ही था। नई पीढ़ी की महिलाओं ने जैसे-जैसे बौद्धिक और आर्थिक सशक्तिकरण की राह पकड़ी, वे अपनी पहचान को लेकर जागरूक हुर्इं, वैसे-वैसे परिवार को अतिरिक्त आर्थिक समृद्धि देने में भी उनकी भूमिका बनी, मगर इसके लिए उन्हें स्वाभाविक रूप से घर से बाहर का रुख करना पड़ा।
इस बीच यह अपने आप होता गया कि समय की कमी के कारण त्योहार मनाने की संजीदगी कमजोर पड़ने लगी। जाहिर है, त्योहार की मूल भावना में कमजोरी आई। बाजार ने यह अवसर लपक लिया और त्योहारों का सामान और खाद्य डिब्बाबंद होकर घरों में पैठ करने लगे। त्योहारों का रंग रूप रेडीमेड होते हुए बदलता गया। अब त्योहार पूरी तरह से बाजार की शरण में हैं।
शिक्षण संस्थान हमारे समाज का आधार बनते हैं। निजी स्कूलों में होली, दिवाली और क्रिसमस आदि सुविधानुसार, त्योहार के अवकाश से पहले, किसी कार्य दिवस को मना लिए जाते हैं। निश्चित दिवस से पहले ऐसा करना मात्र औपचारिकता निभाना ही है।
इस बहाने एक छुट्टी भी बचती है। यों भी, त्योहार मनाने की मूल विधि कितने लोगों को पता है, यदि शास्त्रों में लिखी विधि के अनुसार मनाना भी चाहेें तो लगता नहीं कि ज्यादा लोग अब ऐसा कर पाएंगे। सामयिक बदलावों के साथ सब बदला है या मान लें कि हम सभी ने बदलने दिया। इतना बदलाव ले आए कि समय के साथ चलना होगा। मूल भावना जड़ हो चुकी है और मात्र मनाने की भावना के साथ मनोरंजन की मस्ती और बाजार की हस्ती जुड़ गई है।
बाजार के साथ राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने हाथ मिला कर त्योहारों के उत्साह की भावना को आंकड़ों के हवाले कर दिया है और यह समीकरण ‘लेन-देन’ के सूत्र पर आधारित है। किसी युग में खुशी के अवसर पर या स्वागत के लिए देसी घी के दिए जलाए जाते थे और उनका उस समय के बेहद हरे-भरे पर्यावरण को नुकसान भी नहीं होता था। लेकिन अब सिर्फ रिकार्ड बनाने के लिए लाखों दिए जलाए जाते हैं।
भले ही उनके कारण पर्यावरण को नुकसान हो। त्योहारों पर पटाखे चलाने की बात तो पूरी तरह बाजार दवारा हथियाई गई लगती है। मिठाई बेचने के कारोबार के पीछे नकली दूध या मावे आदि से लोगों की सेहत को नुकसान पहुंचाने का इंतजाम करने के कारनामे को त्योहार का हिस्सा कैसे मान सकते हैं। लगता है त्योहार अब एक तिथि हो गए हैं।