रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है : गालिब के इस शेर का रिश्ता खून-खराबे से नहीं है, पर गुस्से से जरूर है। यहां गुस्से का मतलब वह सकारात्मक जोश है जो गलत को गलत और सही को सही कहने की हिम्मत रखता है। किसी भी गलत के खिलाफ खड़े होने की वकालत करता है। पर आज गली-मुहल्ले से लेकर चौक-चौराहों तक आंखों से टपकता जो लहू दिख रहा है, वह डर पैदा करता है। अंधी आंखों के उन्माद और बंद दिमाग की सनक का यह लहू हमें जिस दिशा में बहाए लिए जा रहा है वह बेहद खतरनाक है। इसी खतरे से निपटने को आगाह कर रहा है आज का बेबाक बोल
तृप्त जानवर होने से बेहतर है अतृप्त इनसान बन कर रहना। दरअसल, इनसान और जानवर के बीच मूल फर्क यही है कि तृप्त रहने की प्रवृत्ति ने जानवर को जानवर बनाए रखा और नए और बेहतर की तलाश में भटकने वाली प्रवृत्ति ने दो पैरों वाले जानवर को इनसान बनाया। गौर से देखें, तो वह इनसान ही है जिसने बाहरी प्रकृति हो या भीतरी, उसे साधने की कोशिश की, संस्कार देने की कोशिश की। संस्कार देने की ऐसी ही कोशिशों का नतीजा है कि यह देश अपने सिद्धांतों के लिए, अपने उसूलों के लिए और अपने संस्कारों के लिए प्राचीन काल से विश्व भर में जाना जाता रहा है।
लेकिन हाल के दशकों में ऐसे ढेरों उदाहरण सामने आए हैं जिन्हें देख कर बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि विश्व का सबसे जवां देश गुस्से में है। और दुखद बात यह है कि यह गुस्सा बिल्कुल प्राकृतिक है। इतना प्राकृतिक कि हमें आदिम युग की याद दिलाता है। हम कहीं से 21वीं सदी के इनसान नहीं रह पाते। अभी-अभी इसी आदिम गुस्से का शिकार बने हैं दिल्ली के दंत चिकित्सक पंकज नारंग। घर के बाहर बच्चे के साथ खेल रहे थे। कुछ लोगों को तेज बाइक नहीं चलाने की सलाह क्या दी अभिमान में भरे लोगों ने उनके छोटे बच्चे के सामने पीट-पीट कर उनकी हत्या कर दी।
इस आदिम गुस्से को पहचानने के लिए थोड़ा पीछे लौटें। वर्ष 1988 की एक घटना याद करें। पटियाला में रोडरेज के बाद हृदयाघात से 50 बरस के गुरनाम सिंह की मौत हो गई थी। यह झड़प क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू के साथ हुई थी। इस मामले में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने सिद्धू को दोषी पाया था। बीते साल 26 जुलाई को ग्रेटर नोएडा में रोडरेज का एक मामला सामने आया था। ग्रेटर नोएडा में कार सवार लोगों ने एक शख्स पर हमला कर उसे बुरी तरह जख्मी कर दिया। पीड़ित शिव कुमार के सिर पर गंभीर चोट आई थी। वारदात उस समय हुई जब कुमार अपनी कार से घोड़ी बछेड़ा से डाबरी जा रहे थे। रेलवे रोड पर पायल सिनेमा के पास उनकी कार जाम में फंस गई। उसके बाद, पीछे की कारें रास्ते के लिए हॉर्न देने लगीं।
जब कुमार रास्ता नहीं दे पाए तो पिछली कार से उतर कर दो व्यक्ति आए और उन्हें पीटने लगे। इससे हफ्ते भर पहले दिल्ली के ज्योति नगर इलाके में रोडरेज की वारदात हुई थी। मामला ईद की रात का है, जब बाइक के टकराने को लेकर दो गुटों में पहले मारपीट हो गई। इस दौरान पास में खड़े सलमान नाम के शख्स ने मारपीट कर रहे लड़कों को अलग करने की कोशिश की। लेकिन उनमें से किसी ने सलमान को ही चाकू मार दिया और मौके से फरार हो गया। इसके बाद सलमान को अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनकी मौत हो गई।
पिछले ही साल 10 मई की सुबह तकरीबन 10 बजे दिल्ली में हुए रोडरेज में डीटीसी के बस ड्राइवर की मौत हो गई। यह वारदात तब हुई जब डीटीसी की बस कर्मपुरा से बहादुरगढ़ की तरफ जा रही थी। उसी दौरान बस की टक्कर बाइक से हो गई। बाइक सवार अपनी मां के साथ जा रहा था। उसने गुस्से में बस ड्राइवर अशोक को नीचे उतारा और पीटने लगा। इतने में उसने बस के अंदर रखा आग बुझाने वाला सिलेंडर निकाल लिया और उससे ड्राइवर पर हमला कर दिया। ड्राइवर की छाती पर गंभीर चोट आई। उसे पास के अस्पताल में ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
वहीं बीते साल दिल्ली में छह अप्रैल की रात करीब 11:30 बजे शाहनवाज को कुछ कार सवार लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला, केवल इसलिए कि शाहनवाज की बाइक आरोपियों की कार से टकरा गई थी। वारदात के वक्त शाहनवाज अपनी मां के घर से अपने दूसरे घर जा रहा था और साथ में उसके दोनों बेटे भी थे। शाहनवाज के बेटों ने बताया था कि उनके पिता की बाइक एक आई-10 कार से मामूली रूप से टकराई। टक्कर के बाद कार के अंदर से दो लोग निकले और उनके पिता की पिटाई शुरू कर दी। उसके बाद स्कूटी में सवार तीन लोग पीछे से और आए और वो भी मारपीट में शामिल हो गए। बेटे का कहना है कि उसने भागकर आसपास खड़े लोगों से मदद की गुहार लगाई। लेकिन किसी ने बचाने की कोशिश नहीं की। उसके बाद उसने पास ही में खड़े दो पुलिसकर्मियों से भी मदद मांगी, लेकिन पुलिसवाले वहां से गायब हो गए।
रोडरेज की ऐसी वारदात के ढेर सारे जख्म भरे पड़े हैं दिल्ली जैसे महानगरों के शरीर पर। रोडरेज में किसी की जान जाने के बाद अक्सर बहसें होती हैं, पर नतीजा नहीं निकलता। डॉ. नारंग भी अब इस दुनिया में नहीं रहे, मगर उनके साथ जो कुछ हुआ, उसने कई सवाल खड़े किए। समाज की जागरूकता, हमारी सहिष्णुता सवालों के घेरे में है। यह कौन सा वक्त है जहां इनसान उस वक्त चुप रहता है जब बोलने की जरूरत होती है और वहां बोलने लग जाता है जहां चुप रहने की जरूरत है। डॉ. नारंग के साथ हुए हादसे का एक और दुखद पहलू यह है कि सोशल मीडिया पर मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई। ऐसे लोगों की पहचान बेहद जरूरी है जो समाज में अशांति फैलाना चाहते हैं, और हमारी पूरी कोशिश यह होनी चाहिए कि अशांति फैला कर अपना हित साधने की उनकी कोशिशें कामयाब न हो।
मनोवैज्ञानिकों की भाषा में बोलें तो रोडरेज की वजह इंटर मिटेंट एक्सप्लोसिव डिसआॅर्डर (आइईडी) है यानी एक तरह का मनोविकार। आम धारणा यह है कि रोडरेज की वजह तीव्र गुस्सा या बदसलूकी है। यह मान लोग इसे नजरअंदाज कर देते हैं। पर सच है कि नजरअंदाज करने पर यह समस्या और अधिक खतरनाक हो सकती है। इस मनोविकार का असल कारण मस्तिष्क के रसायनों का असंतुलित होना है। हालांकि यह असंतुलन कुछ ही देर के लिए होता है। लेकिन इस असंतुलन के होते ही शख्स हिंसक हो उठता है। इतना हिंसक कि वह उस क्षण किसी की जान भी ले सकता है।
अमूमन इस तेज गुस्से को हम मनोविकार के रूप में नहीं देख पाते और इसलिए इसका इलाज भी नहीं कराते। सर्वे की मानें तो हर 20 में से एक व्यक्ति आइईडी का शिकार होता है। महिलाओं की तुलना में पुरुष इस मनोविकार के शिकार अधिक होते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इस अनियंत्रित गुस्से को दवाओं और मनोवैज्ञानिक तरीके से रोका जा सकता है।
कानूनविदों की निगाह में, सख्त कानून बना कर रोडरेज पर अंकुश लगाया जा सकता है। अभी हाल ही में बंगलुरु में चार लोगों के झगड़े की वजह से लंबा जाम लगा तो बंगलुरु ट्रैफिक कमिश्नर के आदेश पर उन चारों को धारा 160 के तहत गिरफ्तार किया गया। इस धारा के तहत जमानत सिर्फ मजिस्ट्रेट ही दे सकते हैं।
इसी तरह, रोडरेज के मामलों को देखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट में जो याचिका डाली गई है उसमें केंद्रीय कानून मंत्रालय, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस को पार्टी बनाते हुए मांग की गई है कि ऐसी वारदात रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनाए जाएं। दरअसल मनोचिकित्सक हों या सरकार, उनके तर्क तब तक अधूरे रहते हैं जब तक कि हम उनकी समाजशास्त्रीय व्याख्या न करें।
हमें समझना होगा कि गुस्सा अगर बढ़ता है, मस्तिष्क में अगर कोई रासायनिक असंतुलन पैदा होता है तो उसकी वजह क्या है? क्या यह मुमकिन है कि महज कानून के भय से रोडरेज की वारदात रुक जाएगी। अगर वारदात रोकने में कानून की भूमिका इतनी बड़ी होती तो दुनिया में न हत्या की वारदात होती न बलात्कार होता। यानी विश्व अपराधमुक्त हो चुका होता।
जाहिर सी बात है कि हमें इस गुस्से को समाजशास्त्रीय नजरिए से देखना होगा। आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वह आपाधापी से भरा पड़ा है। महानगरों में रोजी और रोटी बचाए रखने के लिए रोज सुबह-शाम हम लंबी दूरी नापते हैं। यह लंबी दूरी हमारे धीरज की लंबाई छोटी करती है। तिस पर दफ्तरी और घरेलू दबाव हमारी हताशा और हमारे क्षोभ को हवा देता है। हमारे भीतर बुलबुले की तरह गुस्सा बनता और मिटता है और कभी-कभी गुस्से के बनने के दौर में ही जब कोई छोटा-मोटा हादसा या अयाचित स्थिति हमारे सामने आ जाती है तो हमारा गुस्सा हमारे नियंत्रण के बाहर हो फटता है।
दूसरी बात यह है कि हाल के दिनों में सामूहिकता में जीने का हमारा अभ्यास छूटता गया है। हमारी सामाजिक संवेदनशीलता भोथरी हुई है। हममें दूसरों के विचारों को जगह देने की प्रवृति गुम हुई है। हम तेजी से चीखना सीखे हैं और दूसरों को सुनना भूल चुके हैं।
ध्यान दें कि कुदरत के मुताबिक, हमारे केश बढ़ते हैं, हमारे नाखून बढ़ते हैं पर उन्हें संवारने का तरीका निकाल कर हम उनका संस्कार करते हैं और तब इनसान कहलाते हैं। इस लिहाज से देखें तो कहना पड़ता है कि गुस्सा भी प्राणी का सहज गुण होता है। सच तो यह है कि गुस्से को भी संस्कार दिया जाता है तभी वह खूबसूरत होता है और क्रांतिकारी भी। जिस गुस्से को संस्कार न दिया जा सके या न दिया गया हो वह तो हमें आदिम युग में धकेल देता है। इनसानों ने इस गुस्से को तरतीब दिया, उसका संस्कार किया तो वह हथियार बना और विकास के रास्ते गढ़ने लगा। अगर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता सेनानियों का गुस्सा नहीं भड़का होता और उन्होंने देश के लोगों के गुस्से को संस्कारित नहीं किया होता तो हम आज भी गुलाम अवस्था में जी रहे होते।
दरअसल हमारे आज के नेता हमारे गुस्से को वोट के रूप में देखते हैं और शायद इसीलिए उसे संस्कारित करने के बजाए उसे विस्फोटक बनाने में उनकी रुचि ज्यादा होती है। उनके भड़काऊ बयान हमें और भड़काते हैं। इस क्रम में हम फिल्मों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। फिल्मों में पैसे का अश्लील प्रदर्शन हमारे भीतर जगह बनाता है। चमचमाती गाड़ियां और उसकी गति बड़ी तेजी से हमें अपनी ओर खींचती हैं। वहां जब किसी नायक को हिंसक तरीके से अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते देखते हैं तो हम तालियां बजाते हैं। जाहिर सी बात है कि नायक का वह क्षोभ, वह गुस्सा हमें लुभाता है और हमारे भीतर जो चुप्पी और सहने की जो संवेदना है, उसे कुंद करता है।
मुद्दा यह है कि हम सद्भाव से मुद्दों को हल करना भूल गए हैं। देश की राजनीति में हर पल हो रही मौखिक हिंसा हमारे आचरण में बहुत हद तक उतर आई है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस देश ने समूचे विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया वह खुद ही बेलगाम हिंसा के दौर से गुजर रहा है। यह समझना होगा कि सड़क किसी एक की नहीं और हर बार दुर्घटना जानबूझ कर नहीं होती। अगर ऐसा है भी तो उसके लिए कानून का रास्ता है। आखिर हम सब एक सभ्य देश के नागरिक हैं। 21वीं सदी में रहकर हम खुद को आदिम युग में न ले जाएं।