संपादकीयः सुकमा के गुनहगार
करीब डेढ़ महीने पहले छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बुरकापाल में माओवादियों के हमले में सीआरपीएफ के पच्चीस जवान शहीद हो गए थे। हमलावरों की खोज जारी थी और पिछले दिनों कई आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था।

करीब डेढ़ महीने पहले छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बुरकापाल में माओवादियों के हमले में सीआरपीएफ के पच्चीस जवान शहीद हो गए थे। हमलावरों की खोज जारी थी और पिछले दिनों कई आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था। अब सुरक्षा बलों के संयुक्त दल ने अलग-अलग इलाकों से चौदह अन्य माओवादियों को गिरफ्तार किया है, जिनमें नौ लोगों पर बुरकापाल हमले में शामिल होने का आरोप है। इस तरह अब तक कुल सैंतालीस आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। स्वाभाविक ही इसे सुरक्षा बलों की एक बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जा रहा है। माओवादी हिंसा से प्रभावित इलाके में इससे सख्त संदेश जाएगा। लेकिन सवाल है कि आखिर किसी हमले के बाद ही पुलिस और सुरक्षा बल इतने सक्रिय क्यों होते हैं और उन्हें इतनी बड़ी तादाद में आरोपियों को पकड़ पाने में कामयाबी कैसे मिलती है! हालांकि ऐसे आरोप भी लगते रहते हैं कि माओवादियों की ओर से किए गए किसी बड़े हमले के बाद पुलिस या सुरक्षा बल आनन-फानन में जो कार्रवाई करते हैं, उसमें कई बार वे निर्दोष साधारण नागरिक भी चपेट में आ जाते हैं, जिनका हिंसा से कोई लेना-देना नहीं होता। जबकि पुलिस या सुरक्षा बल के अभियान में निर्दोष नागरिक परेशान न हों, तो यह अभियान को और कारगर बनाने में मददगार ही साबित होगा।
बुरकापाल हमला पिछले सात सालों के दौरान सुरक्षा बलों पर किसी माओवादी समूह का सबसे बड़ा हमला था। इसलिए स्वाभाविक ही इस हमले में दो दर्जन जवानों के शहीद होने के बाद देश भर में आक्रोश का माहौल बना। इससे पहले 2010 में माओवादियों के हमले में छिहत्तर जवानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। यों नक्सली हिंसा ने पिछले तकरीबन पांच दशक से ज्यादा समय से देश के कुछ राज्यों खासकर आदिवासी इलाकों को हिंसा के भंवर में उलझाए रखा है। लेकिन अब भी इसका कोई ठोस समाधान निकलता नहीं दिख रहा। जबकि सुरक्षा के मोर्चे पर भारी तादाद में जवानों को तैनात करने से लेकर सलवा जुडूम जैसे प्रयोग भी किए गए। लेकिन आज भी हालत यह है कि माओवादी हिंसा से प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों पर हमला आम बात है। इससे यही साबित होता है कि तमाम सरकारी कवायदों के बावजूद माओवादी समूह अब भी हिंसा को अंजाम देने में सक्षम हैं।
जाहिर है, नक्सल विरोधी अभियान आसान नहीं है। दुर्गम इलाकों और रास्तों के अलावा हमले की घटना के समय या उसके तुरंत बाद सहायता पहुंचने में देरी की वजह से भी कई बार बड़े समूह में होने के बावजूद हमारे जवान बड़ी तादाद में जान गंवा देते हैं। जाहिर है, यह जमीनी स्तर पर ऐसे हमलों से निपटने में रणनीतिक कमी का मामला है। लेकिन सभी जानते हैं कि माओवादी हिंसा केवल सतही स्तर पर किसी छोटे-मोटे समूह का काम नहीं है। इसके पीछे उन इलाकों में गरीबी, शोषण और उत्पीड़न का एक बड़ा पहलू कायम है, जिसका फायदा उठा कर माओवादी समूह वहां अपनी पैठ बनाते हैं। नक्सल समस्या को लेकर अनेक बौद्धिकों समाज विज्ञानियों और मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों ने समय-समय पर सुझाव रखे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सुरक्षा व्यवस्था की नियमित निगरानी और स्थानीय निवासियों की भागीदारी के साथ-साथ सरकारी स्तर पर विकास कार्यों में तेजी लाने के बाद ही किसी बड़े और स्थायी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।