पूनम नेगी
भारतीय संस्कृति में पतिव्रत धर्म की अपार महिमा गाई गई है और भारत की पतिव्रता नारियों की एक उच्चतम आदर्श हैं महासती सावित्री। वैदिक भारत की इस महान नारी ने अपनी अदम्य जिजीविषा, गहन ईशनिष्ठा, पतिव्रत धर्म की तपशक्ति और अनूठे संवाद कौशल के बल पर जिस तरह मृत्यु के देवता यमराज के काल पाश से मुक्त कराकर मृत पति को पुनर्जीवन दिलाया; वैसा विलक्षण उदाहरण किसी अन्य धर्म-संस्कृति में नहीं मिलता। कहते हैं कि महासती सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे ही मृत्यु के देवता यमराज से मृत पति का पुनर्जीवन हासिल किया था, तभी से वट वृक्ष देव वृक्ष के रूप में पूज्य हो गया। अक्षय वट के समान अपने सुहाग को अक्षय रखने की कामना वस्तुत: भारतीय स्त्री की अदम्य जिजीविषा और भारतीय संस्कृति के उत्कृष्ट जीवन मूल्यों का परिचायक है।
सती सावित्री की उसी महाविजय से अभिप्रेरित होकर भारत की सुहागन स्त्रियां सदियों से ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वट सावित्री व्रत का पूजन-अनुष्ठान करती आ रही हैं। कुछ सुहागिनें यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिन तक करती हैं, वहीं वैष्णव धर्मावलम्बी स्त्रियां इस व्रत को शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक करती हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल, बिहार, मिथिलांचल, झारखंड, तथा मध्य भारत में वट सावित्री पूजा का यह व्रत को ‘बरगदाही’ के नाम से भी जाना जाता है। इस वट पूजन में हमारे जीवन में वृक्षों की महत्ता व पर्यावरण संरक्षण का पुनीत संदेश भी छुपा है।
हिंदू दर्शन में वट वृक्ष यानी बरगद को ‘कल्प वृक्ष’ की संज्ञा दी गई है।
इसे सृजन का प्रतीक माना जाता है। वट वृक्ष की महत्ता प्रतिपादित करते हुए विष्णु पुराण में कहा गया है-‘जगत वटे तं पृथुमं शयानं बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि।’ अर्थात प्रलयकाल में जब सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो गई तब जगत पालक श्रीहरि अपने बालमुकुंद रूप में उस अथाह जलराशि में वटवृक्ष के एक पत्ते पर निश्चिंत शयन कर रहे थे। सनातन धर्म की मान्यता है कि वट वृक्ष प्रकृति के अकाल में भी नष्ट न होने के कारण इसे ‘अक्षय वट’ कहा जाता है। स्वयं त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) इसकी रक्षा करते हैं।
वट वृक्ष की अभ्यर्थना करते हुए वैदिक ऋषि कहते हैं- ‘मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखा शंकरमेव च। पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते।’ अर्थात हम उस वट देवता को नमन करते हैं जिसके मूल में चौमुखी ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में महादेव शिव का वास है। अपनी विराटता, सघनता, दीर्घजीविता व आरोग्य प्रदायक गुणों के कारण सनातन हिंदू संस्कृति में बरगद को अमरत्व, दीघार्यु और अनंत जीवन के प्रतीक के तौर पर भी देखा जाता है।
प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने वट वृक्ष की छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएं की थीं। अब तो विभिन्न शोधों से भी साबित हो चुका है कि सर्वाधिक प्राणवायु (आक्सीजन) देने के कारण यह वृक्ष मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने व ध्यान में स्थिरता लाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
जानना दिलचस्प होगा कि हमारे देश में अनेक सुप्रसिद्ध वटवृक्ष हैं। इनमें प्रयाग का अक्षयवट, गया का बोधिवट, वृंदावन का वंशीवट तथा उज्जैन का सिद्धवट हिंदू धर्मावलंबियों के बीच विशेष आस्था का प्रतीक है।
अनेक पौराणिक व ऐतिहासिक प्रसंग प्रयाग में त्रिवेणी तट पर वेणीमाधव के निकट अवस्थित ‘अक्षय वट’ की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। मान्यता है कि इसी अक्षय वट के पत्ते पर भगवान श्रीकृष्ण ने बाल रूप में माकंर्डेय ऋषि को दर्शन दिए थे। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर सीता माता ने गंगा मैया की प्रार्थना की थी। पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने सतयुग में इसी अक्षय वट के नीचे बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वे स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे। इसी अक्षयवट की छाया में महर्षि भारद्वाज ने पावन रामकथा का गान किया था।
गोस्वामी तुलसीदास भी इस वटवृक्ष का गुणानुवाद करना नहीं भूले थे। इस वट वृक्ष से न केवल हिंदुओं की अपितु जैन व बौद्ध धर्म की भी आस्था गहराई से जुड़ी है। इसी तरह जैनियों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने प्रयाग के अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। इस स्थान को ऋषभदेव की तपस्थली के नाम से जाना जाता है और इसी स्थल पर जैन धर्म के मनीषी पद्माचार्य जी की साधना पूरी हुई थी। इसी तरह महात्मा बुद्ध ने प्रयाग के अक्षय वट का एक बीज कैलाश पर्वत पर बोया था। कहा जाता है कि मुगलकाल में अकबर ने यहां एक किला बनाने के लिए अक्षय वट से लगे मंदिरों को तोड़ दिया था और इस वृक्ष को पातालपुरी में स्थापित कर दिया था। आज भी वट सावित्री पूजा के लिए प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में सुहागिनें यहां जुटती हैं।