पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त तृणमूल कांग्रेस के बहुत सारे नेता भाजपा में चले गए थे, पर चुनाव नतीजों के बाद उनमें से अधिकतर वापस लौट आए। इसी से स्पष्ट हो गया था कि वहां के नेताओं में सत्तापक्ष की बदले की कार्रवाइयों का भय कितना काम करता है। जो पहले तृणमूल छोड़ कर गए थे, उन्हें तब यही लगा था कि सरकार भाजपा की बनेगी और वे सुरक्षित रहेंगे, मगर नतीजे उसके उलट आए तो वे इसी भय से वापस लौट आए कि सत्तापक्ष उन्हें परेशान कर सकता है। जो भाजपा में रह गए, वे सत्तापक्ष के निशाने पर हैं।
विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही तृणमूल छोड़ कर भाजपा में चले गए और ममता बनर्जी को सीधे चुनौती देते आ रहे शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ शिकंजे कसने शुरू हो गए थे। हालांकि भ्रष्टाचार के मामले में अधिकारी के खिलाफ केंद्रीय जांच एजंसियां पहले से जांच कर रही थीं, मगर उनके भाजपा में शामिल होने के बाद वे ठहर गई थीं। फिर पश्चिम बंगाल सरकार ने उनके खिलाफ मुकदमे दायर कराए। इसे लेकर अधिकारी ने कोलकाता उच्च न्यायालय में निष्पक्ष जांच की गुहार लगाई थी। मगर वहां से कोई सकारात्मक निर्देश न मिल पाने की वजह से उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिख कर गुहार लगाई कि पश्चिम बंगाल सरकार विपक्षी नेताओं के खिलाफ झूठे और मनगढ़ंत मुकदमे थोप कर परेशान कर रही है।
इस पर गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल सरकार से रिपोर्ट तलब की है। हालांकि केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच भी रिश्ते लगातार तनावपूर्ण बने रहते हैं। ममता बनर्जी केंद्र के हर फैसले को चुनौती देती देखी जाती हैं। इसलिए वे गृह मंत्रालय के ताजा निर्देश पर कितना सकारात्मक रुख दिखाएंगी, समझा जा सकता है। अगर गृह मंत्रालय इस मामले को तूल देगा, तो वे उसे सियासी रंग देने से परहेज नहीं करेंगी।
राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा लोकतंत्र के हित में होती है, मगर अब इसका लोप होता देखा जा रहा है। सत्ता में आते ही राजनीतिक पार्टियां अपने प्रतिद्वंद्वी को प्राय: रंजिश और बदले की भावना से सबक सिखाने का प्रयास करती हैं। ममता बनर्जी इस मामले में कुछ अधिक आक्रामक रुख अपनाती हैं। वे तो अपने किसी कार्यकर्ता के खिलाफ मुकदमा दर्ज होने पर खुद थाने तक में पहुंच जाती हैं। अगर उनके खिलाफ कोई व्यंग्य-चित्र बनाता है, तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है।
भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ उनके कार्यकर्ताओं का खूनी संघर्ष अनेक मौकों पर देखा जा चुका है। जबकि एक राज्य की मुखिया होने के नाते उनसे संतुलित व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। हालांकि इस मामले में वे अकेली नहीं हैं। दूसरे राज्यों में भी यह प्रवृत्ति मौजूद है। खुद केंद्र सरकार भी ऐसे व्यवहार को लेकर लगातार सवालों के घेरे में बनी रहती है।