विश्वास-मत से पहले
कांग्रेस की मणिपुर सरकार पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं और यह अटकल लगाई जा रही है कि वहां भी कभी भी उलटफेर हो सकता है।

यह सही है कि उत्तराखंड में नौ कांग्रेस विधायकों के बगावत का झंडा उठा लेने के बाद हरीश रावत सरकार के बहुमत पर सवालिया निशान लग गया था और कुछ दिनों से वहां अनिश्चितता का आलम था। फिर भी उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने के केंद्र के फैसले पर कई सवाल उठते हैं। राष्ट्रपति शासन शासन लागू करने का निर्णय तब किया गया जब विधानसभा में शक्ति परीक्षण को सिर्फ एक रोज बाकी रह गया था। क्या कांग्रेस की राज्य सरकारों की विदाई करने की भाजपा की सोची-समझी योजना है? अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार की विदाई को एक महीना भी नहीं हुआ होगा कि उत्तराखंड का नंबर आ गया। कांग्रेस की मणिपुर सरकार पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं और यह अटकल लगाई जा रही है कि वहां भी कभी भी उलटफेर हो सकता है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा राज्यों के अधिकारों और संघवाद पर मुखर रहती थी। संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के लिए वह हमेशा कांग्रेस को कोसती आई थी। पर भाजपा और सहकारी संघवाद की दुहाई देने वाले मोदी को उत्तराखंड में विधानसभा में शक्ति परीक्षण से ऐन पहले राष्ट्रपति शासन लागू करते कोई संकोच नहीं हुआ। वित्तमंत्री अरुण जेटली दोहराते रहे कि उत्तराखंड में जो कुछ हो रहा है वह कांग्रेस के अंतर्विरोध का नतीजा है। पर यह जाहिर है कि इसमें भाजपा ने असामान्य रुचि ही नहीं, रावत को रुखसत करने में उतावली भी दिखाई। मोदी असम का अपना चुनावी दौरा बीच में छोड़ कर दिल्ली पहुंचे और आनन फानन में मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन का निर्णय ले लिया गया। आखिर इतनी जल्दबाजी क्यों दिखाई गई? दरअसल, इसके पीछे विधानसभा अध्यक्ष की कार्रवाई की वजह से बाजी पलट जाने का डर था।
विधानसभाध्यक्ष ने कांग्रेस के बागी विधायकों की सदस्यता खत्म करने का फरमान सुना दिया था और इन सदस्यों को मतदान की अनुमति न मिलने की सूरत में शायद हरीश रावत अपना बहुमत साबित कर देते। फिर उन्हें हटाना नामुमकिन हो जाता। विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को अदालत में चुनौती दी जाती, पर अदालती फैसला आने में वक्त लगता और वह क्या पता किसके पक्ष में आता। शक्ति परीक्षण का मौका दिए बगैर राष्ट्रपति शासन थोपने के पीछे यही गणित है। पर इस निर्णय ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के दौर की याद ताजा कर दी है। राज्यपाल ने केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य में राजनीतिक अस्थिरता होने की बात जरूर कही है, पर संवैधानिक संकट की स्थिति होने का जिक्र नहीं किया है, जिसके लिए राष्ट्रपति शासन का प्रावधान है। विडंबना यह है कि हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान पूरी प्रशासनिक मशीनरी के नाकाम हो जाने के बावजूद वहां केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। क्या केंद्र सरकार उत्तराखंड की बाबत किए अपने फैसले पर संसद की मंजूरी ले पाएगी? ऐसा कर पाना मुश्किल होगा, क्योंकि राज्यसभा में, जहां सत्तापक्ष का बहुमत नहीं है, सरकार को सहमति मिलना तो दूर, तीखा विरोध झेलना होगा। पर गौरतलब है कि उत्तराखंड में विधानसभा निलंबित रखी गई है। भले भाजपा शुरू में यह जताना चाहती रही हो कि सियासी सेंधमारी के जरिए सत्ता पाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है, पर वहां भाजपा ने कांग्रेस के बागी विधायकों की मदद से वैकल्पिक सरकार के गठन की गुंजाइश बनाए रखी है।