संपादकीयः अमेरिका की कमान
दुनिया में अमेरिका के प्रभाव को देखते हुए वहां के सत्ता परिवर्तन में तमाम देशों की दिलचस्पी स्वाभाविक है।

दुनिया में अमेरिका के प्रभाव को देखते हुए वहां के सत्ता परिवर्तन में तमाम देशों की दिलचस्पी स्वाभाविक है। पर अमेरिका के नए राष्ट्रपति ट्रंप को लेकर उत्सुकता के साथ-साथ अंदेशे भी बहुत हैं। इसका सीधा-सा कारण उनका आक्रामक व्यक्तित्व और विवादास्पद राजनीतिक एजेंडा रहा है। ट्रंप अमेरिका की महानता और गौरव की बहाली की बातें करते हैं। इस पर भला किसी को क्या एतराज हो सकता है? पर शब्दाडंबर हटा कर देखें तो उनका असली मतलब संरक्षणवाद से है। उन्होंने वादा कर रखा है कि रोजगार दूसरे देशों में नहीं जाने देंगे। यानी वे आउटसोर्सिंग के खिलाफ हैं। जाहिर है, इससे भारत समेत कई देशों की आईटी कंपनियां यह सोच कर चिंतित हैं कि उनके कारोबार पर बुरा असर पड़ सकता है। कह सकते हैं कि अमेरिका अपनी घरेलू आर्थिक नीति जो चाहे तय करे। पर दुनिया भर की प्रतिभाओं को अपनाकर ही अमेरिका सिरमौर बना है। इस नीति से किनारा करके ट्रंप अमेरिका को किधर ले जाएंगे? फिर, अमेरिका को वैश्विक जिम्मेदारियों से काट कर वे किस तरह उसका गौरव बढ़ाएंगे? गौरतलब है कि जलवायु संकट से निपटने के कार्यक्रमों में अमेरिका की हिस्सेदारी को वे बेकार की कवायद मानते हैं और संयुक्त राष्ट्र के संचालन में अमेरिका के योगदान को फिजूलखर्ची। दुनिया में सबसे ज्यादा परमाणु हथियार अमेरिका के पास हैं। पर डोनाल्ड ट्रंप को इससे संतोष नहीं है, वे इस क्षमता को और बढ़ाने की वकालत कर चुके हैं।
‘एक चीन की नीति’ यानी ताइवान को चीन का अंग मानने की नीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत जताने और ईरान से हुए परमाणु समझौते को खारिज करने वाले ट्रंप के बयानों ने भी विश्व-राजनीति का तापमान बढ़ाया है। चीन, ईरान और खाड़ी देशों की तो बात ही क्या, यूरोप भी फिलहाल ट्रंप को लेकर सहज महसूस नहीं कर रहा है। जर्मन चांसलर मर्केल की शरणार्थी नीति को ट्रंप गलत मानते हैं। ब्रेक्जिट से हिले यूरोपीय संघ को भय सता रहा है कि आप्रवासियों के प्रति ट्रंप की सख्त नीति का असर यूरोपीय देशों में भी पड़ सकता है और इससे ब्रेक्जिट की प्रवृत्ति को बल मिलेगा, तथा भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को और झटका लगेगा। हालांकि ट्रंप कितने भी आक्रामक हों, अपने विवादास्पद एजेंडे को लागू करना उनके लिए आसान नहीं होगा।
घरेलू राजनीति में उनके प्रति कितना विरोध-भाव है इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि वे भले राष्ट्रपति चुन लिये गए, पर ‘पापुलर वोट’ में डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन से पीछे रहे। उन्हें डेमोक्रेट सांसदों के तीखे विरोध का सामना तो करना ही होगा, कई मामलों में खुद रिपब्लिकन पार्टी के भीतर से असहमति के स्वर उभर सकते हैं।
जहां तक भारत का सवाल है, पिछले दो-ढाई दशक में अमेरिका से उसकी नजदीकी बढ़ती गई है, परमाणु समझौते को इसका प्रतीक कहा जा सकता है। ट्रंप न तो भारत के विशाल बाजार को नजरअंदाज कर सकते हैं न चीन के प्रभाव की काट में भारत की उपयोगिता को। फिर, ट्रंप प्रशासन में कई अहम पदों पर भारतवंशियों की मौजूदगी भी भारत को आश्वस्त करती है। फिर भी ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका में सख्त आव्रजन नीति तथा संरक्षणवाद की संभावना, अमेरिका और चीन के बीच तनातनी बढ़ने तथा जलवायु परिवर्तन और परमाणु अप्रसार जैसे मसलों पर यूरोप व अमेरिका के बीच भी मतभेद उभरने की आशंकाओं के चलते भारत को संभलकर चलना होगा।