अब केंद्रीय जांच एजंसियों के कथित दुरुपयोग का मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। चौदह विपक्षी दलों ने मिल कर इससे संबंधित याचिका दायर की है। इन दलों ने अदालत के समक्ष गुहार लगाई है कि गिरफ्तारी और हिरासत को लेकर केंद्रीय जांच एजंसियों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाएं।
हालांकि इसके पहले भी इसे लेकर कुछ व्यक्तिगत याचिकाएं दायर की गई थीं, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई दिशा-निर्देश देने के बजाय केवल टिप्पणी करके टाल दिया था। अब चौदह विपक्षी दल इसे लेकर एकजुट हुए हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली है। इस तरह अब विपक्षी दल जो बाहर बयान दिया करते थे कि उन्हें सबक सिखाने के इरादे से सरकार केंद्रीय एजंसियों का दुरुपयोग कर रही है, वे अब सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक दिशा-निर्देश का इंतजार करेंगे।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ सालों में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के मकसद से जांच एजंसियां काफी सक्रिय नजर आने लगी हैं, शायद उन्हें मुक्तहस्त भी किया गया है, जिसके चलते लगातार छापे पड़ रहे और भ्रष्टाचार के मामलों में जांचें तेज हो गई हैं। मगर खुद जांच एजंसियों की तरफ से जारी आंकड़ों के मुताबिक छापों और कार्रवाइयों की तुलना में दोषियों की पहचान बहुत कम हो पाई है। महज चार से पांच फीसद मामलों में दोष सिद्ध हुए हैं। बाकी में लोगों को नाहक परेशानी और बदनामी उठानी पड़ी है।
ऐसे में विपक्षी दलों की नाराजगी निराधार नहीं कही जा सकती। फिर यह भी स्पष्ट है कि केवल विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ जांच एजंसियों का शिकंजा कसता है। उन नेताओं के मामलों में जांचें ठंडे बस्ते में डाल दी गई, जो पहले विपक्ष में थे, मगर फिर सत्तापक्ष में आ गए। विपक्षी पार्टियां उन नेताओं के नाम की सूची जारी करती रही हैं।
सार्वजनिक मंचों से उनके नाम लेकर सवाल पूछती रही हैं कि अमुक अमुक के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होती। दरअसल, जांच एजंसियों के खिलाफ विपक्षी दलों में एकजुटता दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद शुरू हुई। सारे दलों ने उसका विरोध किया था। यह भी देखा गया है कि भ्रष्टाचार, धन शोधन या फिर कर चोरी के मामले में जांच एजंसियां अपने दायरे के बाहर चली जाती हैं। जिन मामलों में आयकर विभाग को जांच करनी चाहिए, उनमें भी प्रवर्तन निदेशालय जांच शुरू कर देता है। फिर पुख्ता सबूतों के अभाव में भी कई लोगों को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय पहले ही कह चुका है कि जांच एजंसियों को उनके काम से रोका नहीं जा सकता। धन शोधन और आयकर चोरी से जुड़े मामले अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से संबंधित भी हो सकते हैं। फिर उन्हें जांच से रोक कर एक तरह से भ्रष्टाचार के मामलों को बढ़ावा देना होगा। मगर ताजा याचिका विशेष रूप से जांच एजंसियों के कामकाज के तरीके को लेकर दायर की गई है, जिसमें वे मनमानी ढंग से गिरफ्तारियां करती, हिरासत में लेतीं और फिर लोगों को नाहक प्रताड़ित करती हैं।
उनके कामकाज के तरीके और लक्ष्य बना कर छापे डालने आदि से स्पष्ट होता है कि वे केंद्र सरकार के इरादे के अनुरूप काम कर रही हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय उनके कामकाज को लेकर संवैधानिक हदें तय कर सकता है। संविधान में उनके दायरे तय हैं, सर्वोच्च न्यायालय उनके मद्देनजर उन्हें निर्देश दे सकता है। इसलिए स्वाभाविक ही उसके रुख पर सबकी नजर है।