मगर ओड़ीशा में शायद इसे लेकर अपेक्षित गंभीरता नहीं बरती गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक सहायक पुलिस उपनिरीक्षक यानी एएसआइ ने राज्य के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री पर गोली चला दी और उनकी मृत्यु हो गई। स्वास्थ्य मंत्री एक बैठक के लिए गए हुए थे और वहां इकट्ठा हुए लोगों का अभिवादन करने अपनी गाड़ी से उतरे ही थे कि उन्हें गोली मार दी गई। अब गोली चलाने वाले एएसआइ की पत्नी ने कहा है कि उसके पति पिछले पांच-सात सालों से मानसिक परेशानी का सामना कर रहे थे, जिसका इलाज चल रहा था।
असल तथ्य तो गहन जांच के बाद ही सामने आ सकेगा, मगर फिलहाल सवाल है कि एक मंत्री स्तर के व्यक्ति की सुरक्षा को लेकर इस कदर लापरवाही बरती गई, तो आम लोगों की सुरक्षा को लेकर भला कितनी गंभीरता बरती जाती होगी। अगर कोई पुलिस अधिकारी इतने लंबे समय से मानसिक परेशानियों का सामना कर रहा था, तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं होगा, जरूर उसके ऊपर के अधिकारी भी इस बात को जानते होंगे। फिर उन्होंने संवेदनशील मामलों में उसकी तैनाती से परहेज क्यों नहीं किया।
पुलिस कर्मियों, सेना के जवानों और सुरक्षा बलों में मानसिक तनाव की समस्या कोई छिपी बात नहीं है। अनेक ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब मानसिक तनाव और अधिकारियों के किसी प्रकार के मनमुटाव के कारण किसी सिपाही ने अपने ही साथियों को गोलियों से भून डाला या अपने किसी अधिकारी को गोली मार दी। इस तरह के बढ़ते मामलों के मद्देनजर समय-समय पर जवानों, अधिकारियों आदि के मानसिक स्वास्थ्य की जांच के भी आदेश दिए गए। मगर शायद इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा, जिसकी वजह से ऐसी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं।
हालांकि ओड़ीशा के मामले में एक मंत्री स्तर के व्यक्ति पर गोली चलाई गई, इसलिए इसकी जांच के कई कोण बनते हैं। मंत्री से किसी राजनीतिक रंजिश और आपराधिक साजिश के तार भी तलाशने के प्रयास होंगे। हो सकता है कि स्वास्थ्य मंत्री से दोषी पुलिस अधिकारी की कोई व्यक्तिगत रंजिश रही हो। मगर पुलिस बलों में काम के बढ़ते बोझ और उचित विश्राम आदि न मिल पाने की वजह से मानसिक तनाव के बढ़ते आंकड़ों से इनकार नहीं किया जा सकता।
ओड़िशा के स्वास्थ्य मंत्री की हत्या से दो सबक स्पष्ट हैं। एक तो यह कि विशिष्ट लोगों की सुरक्षा को लेकर किसी भी प्रकार की ढिलाई खतरनाक साबित हो सकती है। दूसरा यह कि पुलिस बलों पर काम के बोझ का मूल्यांकन और उनके स्वाथ्य को लेकर गंभीरता से विचार की जरूरत है। अगर दोषी पुलिस अधिकारी का मानसिक संतुलन ठीक नहीं था, तो उसकी तैनाती ऐसे काम पर क्यों की गई थी, जिसमें अधिक सतर्कता और सक्रियता की जरूरत पड़ती है।
अक्सर पुलिस महकमे का कहना होता है कि उसके पास कर्मचारियों और अधिकारियों की कमी होने के कारण वह अपने जवानों को उचित अवकाश आदि उपलब्ध नहीं करा पाता। उन्हें तय समय से कहीं ज्यादा काम करना पड़ता है। अक्सर पुलिस अधिकारियों को कई-कई दिन तक लगातार काम करना पड़ता है। मगर इस तर्क से किसी अस्वस्थ व्यक्ति के ऊपर अत्याचार की छूट नहीं मिल जाती। शायद इस घटना से सरकारें पुलिस महकमे में जरूरी सुधार का सबक लें।