इजराइल में जिस तरह सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे और आखिरकार सरकार को घुटने टेकने पड़े, वह दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए एक सबक है। हालांकि यह विरोध प्रदर्शन पिछले करीब दस हफ्तों से चल रहा था और उसमें वहां के सरकारी महकमों के लोग भी शामिल हो गए थे। सेना के पायलटों ने भी उसे समर्थन दिया था। सेवानिवृत्त फौजी अफसर आंदोलन के समर्थन में थे।
वहां का सबसे बड़ा मजदूर संगठन सड़कों पर उतर आया था। मगर प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अभी परसों तक अपने फैसले पर अडिग थे। जब उनके फैसले के विरोध में वहां के रक्षामंत्री ने भी बयान दे दिया तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। उसके बाद आंदोलन तेज हो गया। राष्ट्रपति इसाक हरजोग ने प्रधानमंत्री को न्यायपालिका में आमूल-चूल बदलाव संबंधी अपनी योजना को तत्काल रोकने को कहा।
दुनिया भर के इजराइली दूतावासों को संदेश भेज दिया गया कि वे कामकाज रोक दें, केवल अति आवश्यक काम ही निपटाएं। हवाई सेवाएं रुक गई थींं। ऐसे में यह संभावना बढ़ गई थी कि नेतन्याहू अपने कदम वापस खींच सकते हैं। इतने बड़े आंदोलन के बाद भी अगर नेतन्याहू अपने फैसले पर अड़े रहत्ो, तो निस्संदेह उसके भयावह परिणाम की आशंका थी।
दरअसल, पिछले महीने बेंजामिन नेतन्याहू ने संसद में वहां की न्यायपालिका में आमूल-चूल बदलाव संबंधी प्रस्ताव पारित करा लिया था। उसके तहत न्यायपालिका सीमित दायरे में ही काम कर सकती थी, उसके ऊपर सरकार का दबाव बना रहता। इसे लेकर लोगों में नाराजगी थी। उनका कहना था कि इससे लोकतंत्र कमजोर होगा।
मगर नेतन्याहू का तर्क था कि इससे मतदाताओं को लाभ होगा। उनका मकसद केवल न्यायालयों को अपनी ताकत का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने से रोकना है। मगर विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों का आरोप था कि दरअसल, नेतन्याहू न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में कैद करके अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को खत्म करना चाहते हैं।
इस प्रस्ताव के लागू होने के बाद न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। इससे न्यायपालिका को किसी कानून को रद्द करने का अधिकार भी छिन जाएगा। यह बदलाव करके नेतन्याहू तानाशाह की तरह शासन करना चाहते हैं। फिर धीरे-धीरे इन प्रस्तावों के विरोध में प्रदर्शन इतना व्यापक और प्रचंड होता गया कि लोग नेतन्याहू के आवास के करीब तक पहुंच गए। सड़कें अवरुद्ध कर दी गर्इं। फिर अमेरिका ने भी नेतन्याहू को समझाया कि वे लोकतांत्रिक देश हैं और उन्हें लोकतंत्र की मर्यादाओं का पालन करना चाहिए।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में न्यायपालिका सरकारी कामकाज पर नजर रखने और उसे मर्यादित रखने का एक कारगर तंत्र होती है। दरअसल, न्यायपालिका लोकतंत्र के संवैधानिक मूल्यों का प्रहरी है। इसलिए कई बार सत्तापक्ष उसकी वजह से असहज महसूस करता है। इस मामले में इजराइल अकेले नहीं है, जहां न्यायपालिका पर नकेल कसने की कोशिश की जा रही थी।
पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं इसीलिए प्रश्नांकित होने लगी हैं कि उनमें से कइयों ने न्यायपालिका को कमजोर करके निरंकुश व्यवस्थाएं लागू करने का प्रयास किया है। हालांकि विरोध के स्वर हर जगह उठे हैं, मगर कई जगह सरकारें उन्हें दबाने में कामयाब रही हैं। इस लिहाज से इजराइल की अवाम ने नेतन्याहू के प्रयास को चुनौती देकर एक तरह से जीवंत लोकतंत्र होने का सबूत दिया। अब जैसी स्थिति वहां बन चुकी थी कि उस विरोध प्रदर्शन को दबाना सरकार के लिए संभव नहीं था। अच्छी बात है कि नेतन्याहू ने अपने कदम वापस ले लिए।