झारखंड में एक बच्चे को जन्म देने के तुरंत बाद कथित रूप से बेच दिए जाने की घटना को प्रथम दृष्टया मां की संवेदनहीनता और ममता के कारोबार के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन ऐसी घटनाएं कई बार परतों में गुंथी होती हैं और उसमें समाज, परंपरागत धारणाएं, गरीबी और विवशता से लेकर आपराधिक संजाल तक के अलग-अलग पहलू शामिल होते हैं।
झारखंड के चतरा में जिस बच्चे को साढ़े चार लाख रुपए में बेचे जाने की खबर आई, उसमें मां के हाथ में एक लाख रुपए आए। बाकी के साढ़े तीन लाख रुपए बिचौलियों या दलालों के हाथ लगे। चूंकि इसकी सूचना पुलिस तक पहुंच गई और समय रहते सक्रियता भी दिखी, इसलिए बच्चे को बरामद कर लिया गया और कई आरोपी पकड़े गए।
बच्चे को बेचे और खरीदे जाने में जितने लोग, जिस तरह शामिल थे, उससे साफ है कि इसे सोच-समझ कर अंजाम दिया गया। निश्चित रूप से इस मामले में मां की ममता कठघरे में है, मगर कई बार अपने ही बच्चे के बदले पैसा लेने की नौबत आने में हालात भी जिम्मेदार होते हैं। वरना अपने बच्चे का सौदा करना किसी मां के लिए इतना आसान नहीं होता है।
हालांकि यह कोई पहला मामला नहीं है, जिसमें बच्चे की बिक्री मां के हाथों ही होने की घटना सामने आई हो। झारखंड और ओड़ीशा के गरीब इलाकों से अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं, जिनमें कुछ हजार रुपए के लिए ही बच्चे को किसी के हवाले कर दिया जाता है। सवाल है कि बच्चे को बेचने के पीछे क्या कारण होते हैं, उनके खरीदार कौन होते हैं और ऐसी सौदेबाजी को आमतौर पर एक संगठित गतिविधि के रूप में क्यों अंजाम दिया जाता है।
झारखंड की ताजा घटना में एक दंपति को पहले से तीन बेटियां थीं। सामाजिक स्तर पर मौजूद रूढ़ियों से संचालित धारणा के मुताबिक उस दंपति को एक बेटे की जरूरत थी। यानी तीन बेटियां उसकी नजर में इतना महत्त्व नहीं रखती थीं कि उसके बेटे की भूख की भरपाई हो सके। इसलिए उसने ऐसी सौदेबाजी कराने वाले दलालों के जरिए किसी अन्य महिला से उसका नवजात बेटा खरीद लिया। यानी मन में बेटा नहीं होने के अभाव से उपजे हीनताबोध और कुंठा की भरपाई के लिए कोई व्यक्ति पैसे के दम पर गलत रास्ता अपनाने से भी नहीं हिचकता।
इसके अलावा, मानव तस्करी करने वाले गिरोह दूरदराज के इलाकों में और खासतौर पर गरीबी की पीड़ा झेल रहे लोगों के बीच अपने दलालों के जरिए बच्चा खरीदने के अपराध में लगे रहते हैं। झारखंड, ओड़ीशा जैसे राज्यों के गरीब इलाकों में ऐसे तमाम लोग होते हैं, जिन्हें महज जिंदा रहने के लिए तमाम जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। सतह पर दिखने वाली अर्थव्यवस्था की चमक की मामूली रोशनी भी उन तक नहीं पहुंच पाती है।
मानव तस्कर ऐसे ही अभाव से गुजरते लोगों को निशाना बनाते हैं, जहां वे मामूली रकम देकर बच्चा हासिल करके उसे पैसे वाले परिवारों या फिर अंगों का कारोबार करने वालों को ऊंची कीमत पर बेच देते हैं या भीख मांगने या देह व्यापार की त्रासदी में झोंक देते हैं। सवाल है कि कोई परिवार अगर अपने अभाव और लाचारी की हालत में मानव तस्करों या अन्य दलालों के जाल में फंस कर बच्चा बेचने की नौबत तक पहुंचता है, तो उसकी इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है? मानव तस्करी में लगे आपराधिक गिरोह अगर आसानी से यह सब कर पाते हैं, तो उन पर काबू पाने की जिम्मेदारी किसकी है? जाहिर है कि किसी मां के हाथों अपने नवजात की बिक्री से जुड़ी बहुस्तरीय परतों पर विचार किए बिना इस समस्या के वास्तविक संदर्भों पर विचार अधूरा रहेगा।