पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को लाहौर हाई कोर्ट से फिलहाल गिरफ्तारी से राहत भले मिल गई हो, लेकिन वहां के राजनीतिक हलके में जिस तरह दांवपेच का खेल चल रहा है, उसमें सत्ता कब कौन-सा रुख अख्तियार करेगी, कहना मुश्किल है। गौरतलब है कि सत्ता से बाहर होने के बाद से इमरान खान ने मौजूदा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है और इस क्रम में अलग-अलग मंचों से सवाल उठाते हुए धरना-प्रदर्शनों के जरिए चुनौती पेश की है। इसी दौरान एक बार उन पर जानलेवा हमला भी हुआ।
दूसरी ओर, सरकार की ओर से वे तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जिसके जरिए इमरान खान को बाधित किया जा सके। इस बीच सरकार का जैसा रवैया सामने आ रहा है, उसमें ऐसे आरोप लगाए जाने लगे हैं कि पाकिस्तान में सेना का हाथ जिस पार्टी के सिर पर होता है, वहां की सरकार उसी मुताबिक काम करती है। यही वजह है कि सरकार-विरोधी प्रदर्शनों के बाद इमरान खान और उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ को कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
दरअसल, पाकिस्तान में चुनाव कार्यालयों के बाहर हुए प्रदर्शनों के हिंसक रूप अख्तियार कर लेने के मामले में इमरान खान की गिरफ्तारी लगभग तय मानी जा रही थी। मगर उन्हें राहत इस बात से मिली कि लाहौर हाईकोर्ट ने उनकी याचिका को स्वीकार कर लिया और फिलहाल उन्हें सुरक्षात्मक जमानत दे दी है। हालांकि तोशखाना मामले से संबंधित शिकायत अदालत में कैसा मोड़ लेगी, कहा नहीं जा सकता। सही है कि इमरान खान के सरकार में रहते हुए भी पाकिस्तान की आर्थिक हालत कोई बेहतर स्थिति में नहीं थी।
मगर उनके सत्ता छोड़ने के बाद महंगाई समेत तमाम आर्थिक मोर्चों पर जो दुर्दशा देखी जा रही है, उससे वहां आम लोगों को बेहद मुश्किल हालात का सामना करना पड़ रहा है। एक तरह से इमरान खान के लिए यह अनुकूल मौका है कि वे सरकार को कठघरे में खड़ा करें और प्रतिरोध को अवाम के बीच ले जाएं। उन्हें और उनकी पार्टी को इस मामले में काफी हद तक कामयाबी मिली भी है। पाकिस्तान सरकार के लिए यही चिंता की बात है।
मगर इसके समांतर पाकिस्तान का एक सच यह भी है कि वहां सरकार बनाने से लेकर गिराने तक में सेना का दखल रहता है। इस बार भी इमरान खान की सरकार गिरने और मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के नेतृत्व में सरकार बनने में पाकिस्तानी फौज की भूमिका अहम मानी जा रही है। दरअसल, पाकिस्तान में जिस पार्टी को सेना का वरदहस्त प्राप्त होता है, सत्ता उसके अनुकूल ही काम करती है।
पिछले साल इमरान खान की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के वक्त भी बदहाल अर्थव्यवस्था और लगातार बिगड़ते हालात को देखते हुए सेना ने पाकिस्तान में मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिश की थी। मगर इमरान खान इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि करीब एक महीने पहले इमरान खान ने खुलेआम पाकिस्तान की सत्ता में सेना के दखल का जिक्र किया और अपनी सरकार गिराने में पूर्व सैन्य प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा की भूमिका की जांच कराने की मांग की थी।
सवाल है कि अगर सेना की ओर से इस स्तर पर दखलंदाजी है, तो वहां कोई भी व्यवस्था कैसे सहज तरीके से काम कर पाएगी! जाहिर है, पाकिस्तान में सत्ता के स्वरूप को लोकतांत्रिक बनाने के लिए राजनीतिक मुख्यधारा को अब सेना की दखल से निपटने की पहल करनी होगी।