Jansatta Editorial Column: राजनेताओं के नफरती और भड़काऊ भाषणों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर कड़ी टिप्पणी की है। एक मामले पर दो दिनों तक चली सुनवाई में अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा कि ऐसे नफरती भाषणों के खिलाफ अब तक क्या कार्रवाई हुई है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय पहले भी अलग-अलग मामलों की सुनवाई करते हुए राजनेताओं और धार्मिक संगठनों से जुड़े लोगों को सार्वजनिक मंचों से बोलते वक्त संयम बरतने की नसीहत दे चुका है, मगर इस प्रवृत्ति में कोई सुधार नजर नहीं आता।
स्वाभाविक ही ताजा मामले में उसने इस पर तल्ख टिप्पणी की। दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि जब तक राजनीति में धर्म का समावेश होता रहेगा, ऐसे नफरती भाषणों पर अंकुश लगाना संभव नहीं होगा। भारत के लोग दूसरे समुदायों के लोगों का अपमान न करने का संकल्प क्यों नहीं लेते। अदालत ने जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख करते हुए कहा कि उनके भाषणों को लोग दूर-दूर से सुनने आते थे। वैसी नजीर अब कोई नेता क्यों पेश नहीं करना चाहता। अदालत ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि लोग समुदाय विशेष को लेकर ही नफरती भाषणों के खिलाफ चुनिंदा तरीके से मुकदमे क्यों दर्ज कराते हैं। उनमें सभी समुदायों और पंथों के खिलाफ दिए गए नफरती भाषणों पर सख्ती क्यों नहीं दिखाई जाती।
सर्वोच्च न्यायालय लंबे समय से ऐसे भाषणों, बयानों और तकरीरों के खिलाफ सख्त रहा है। करीब दो महीना पहले महाराष्ट्र में आयोजित सकल हिंदू समाज की रैली को लेकर निर्देश दिया था कि राज्य सरकार सुनिश्चित करे कि वहां कोई नफरती भाषण न होने पाए। उस रैली की वीडियो रिकार्डिंग का भी आदेश दिया था। जब जगह-जगह धर्म संसद करके समुदाय विशेष के खिलाफ नफरती और भड़काऊ भाषण दिए गए थे, तब भी अदालत ने सरकार को सख्त लहजे में इस पर काबू पाने को कहा था।
मगर राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और नेताओं को शायद ऐसे अदालती आदेशों-निर्देशों की कोई परवाह नहीं है। खुद सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का उल्लेख किया है कि टीवी चैनलों पर आए दिन राजनीतिक दलों के प्रवक्ता सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले वक्तव्य देते रहते हैं। राजनेताओं से किसी भी ऐसे आचरण की अपेक्षा नहीं की जाती, जिससे सामाजिक ताने-बाने पर बुरा प्रभाव पड़ता हो। मगर इस दौर की राजनीति का स्वरूप कुछ ऐसा बनता गया है कि दूसरे धर्मों, संप्रदायों, समुदायों के खिलाफ नफरती भाषण देकर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास किया जाने लगा है। जाहिर है, उसमें भाषा की मर्यादा का भी ध्यान नहीं रखा जाता।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से स्पष्ट है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए सरकारों को संजीदगी दिखाने की जरूरत है। नफरती भाषणों के खिलाफ सख्त कानून हैं, मगर चिंता की बात है कि पुलिस और प्रशासन ऐसे मामलों पर चुनिंदा ढंग से कार्रवाई करते देखे जाते हैं। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा तो केंद्र सरकार की तरफ से पेश हुए वकील ने कहा कि ऐसे अठारह मामलों में प्राथमिकी दर्ज कराई जा चुकी है।
मगर उन पर कार्रवाई क्या हुई, इसका जवाब उनके पास नहीं था। छिपी बात नहीं है कि किस-किस राजनीतिक दल के कौन-कौन से नेता और प्रवक्ता किन-किन मौकों पर क्या-क्या नफरती बोल बोल चुके हैं। मगर विडंबना है कि उन्हें रोकने की जरूरत नहीं समझी गई और वे ऐसे विद्वेष भरे भाषण देते रहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी को राजनीतिक दल कितनी गंभीरता से लेंगे, कहना मुश्किल है।