अभी तक विपक्षी दल केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग जैसी केंद्रीय जांच एजंसियों के दुरुपयोग का जबानी आरोप लगाती रही हैं, मगर अब उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर यह बात कही है। इस पत्र में नौ विपक्षी नेताओं के हस्ताक्षर हैं। उन्होंने इस पत्र में उन नेताओं के नाम भी गिनाए हैं, जिन्हें ये एजंसियां बेवजह परेशान कर रही हैं। उनमें दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का भी नाम है।
इसके अलावा उन लोगों के भी नाम बताए गए हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे, मगर जब उन्होंने पाला बदल कर भाजपा का दामन पकड़ लिया तो जांच एजंसियों ने उनकी तरफ से मुंह फेर लिया। हालांकि ये आरोप नए नहीं हैं कि सत्तापक्ष राजनीतिक रंजिश के चलते जांच एजंसियों के जरिए अपने विरोधियों को परेशान करने का प्रयास करता है।
जो भी राजनीतिक दल विपक्ष में होता है, वह बहुत आसानी से यह बात कह देता है। मगर शायद यह पहली बार है, जब नौ विपक्षी दलों ने मिल कर प्रधानमंत्री से इस बात की शिकायत की है। भाजपा ने इसके जवाब में कहा है कि विपक्षी पार्टियां एक-दूसरे को बचाने में लगी हैं। सत्ता में रहते हुए उन्होंने भ्रष्टाचार को जैसे अपना अधिकार समझा।
भाजपा शुरू से दम भरती रही है कि वह किसी भी रूप में भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर सकती। यह भी सही है कि भाजपा के केंद्र में आने के बाद भ्रष्टाचार के मामलों में जितने छापे पड़े हैं, शायद उतने किसी और सरकार के समय नहीं पड़े होंगे। यह अच्छी बात है कि कोई सरकार भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की दिशा में पहल करे।
मगर इन छापों से निकले नतीजे निराश ही करते हैं। बहुत कम मामलों में लोगों को दोषी पाया गया है। ज्यादातर मामलों में जांच एजंसियों की लंबी कवायदें बेनतीजा ही साबित हुई हैं। फिर अधिकतर छापे केवल उन्हीं लोगों पर पड़े हैं, जिनका ताल्लुक सत्तापक्ष से नहीं है। ऐसे में यह सवाल बार-बार पूछा जाता रहा है कि क्या वास्तव में सत्तापक्ष में कोई ऐसा नहीं, जिसके खिलाफ अनियमितता की शिकायतें हों।
फिर ऐसे अनेक नेता हैं, जो पहले किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी में थे और भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में जांच एजंसियों के सवालों का सामना कर रहे थे, मगर जैसे ही वे भाजपा में आए, उनके खिलाफ चल रही जांचें ठंडे बस्ते में चली गर्इं। इसलिए जांच एजेंसियों पर स्वाभाविक रूप से आरोप लगने शुरू हुए कि वे केंद्र के इशारे पर काम कर रही हैं।
भ्रष्टाचार हमारे देश की तरक्की में बहुत बड़ा रोड़ा है। इसके चलते संवैधानिक तकाजे पूरे नहीं हो पाते। कुछ दिनों पहले सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कैंसर की तरह फैला हुआ बताया। निस्संदेह इस प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए, तभी संपत्ति के असमान वितरण पर रोक लग सकेगी और स्वस्थ रूप से समाज और अर्थव्यवस्था का विकास हो सकेगा। मगर इस पर रोक लगाने का यह तरीका कतई नहीं हो सकता कि पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जाए।
इससे जांच एजंसियों के स्वतंत्र रूप से काम करने का अधिकार और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का मकसद बाधित होता है। विपक्षी दल भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर जांच एजंसियों के दुरुपयोग का आरोप तो लगा रही हैं, पर क्या वे सचमुच खुद इस प्रवृत्ति को रोकने को लेकर संजीदा हैं? जहां वे सत्ता में हैं, वे अपने पक्ष के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कितनी कठोर हैं, इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ सामूहिक राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।