संपादकीयः अपराध और दंड
दिल्ली के साकेत स्थित विशेष पॉक्सो अदालत ने मंगलवार को सामूहिक बलात्कार के दोषी ब्रजेश ठाकुर को मरने तक कैद की सजा सुनाई है। इसके अलावा, ग्यारह अन्य दोषियों को भी आजीवन कारावास की सजा मिली।

Muzaffarpur shelter home case: बिहार के मुजफ्फरपुर में करीब डेढ़ साल पहले जब एक बालिका गृह में तीन दर्जन बच्चियों के यौन शोषण की भयावह और चर्चित घटना सामने आई थी तो समूचे देश में उसे लेकर सवाल उठा था कि क्या उच्च स्तर के संरक्षण के बिना यह सब बेधड़क चलता रह सकता था! तब कुछ बड़े नेताओं के भी उसमें शामिल होने के संकेत थे, लेकिन आखिरकार कानून के कठघरे में बिहार के एक कद्दावर व्यक्ति ब्रजेश ठाकुर सहित उन्नीस लोगों को दोषी ठहराया जा सका। अब दिल्ली के साकेत स्थित विशेष पॉक्सो अदालत ने मंगलवार को सामूहिक बलात्कार के दोषी ब्रजेश ठाकुर को मरने तक कैद की सजा सुनाई है। इसके अलावा, ग्यारह अन्य दोषियों को भी आजीवन कारावास की सजा मिली। निश्चित रूप से दोषियों को सुनाई गई सजा इंसाफ की मांग के लिहाज से संतोषजनक है, लेकिन घटना की जैसी प्रकृति थी, उसमें यह हैरान करने वाली बात थी कि न्याय की बात करने वाली सरकार और उसके प्रशासन की लापरवाही की वजह से आरोपियों को खुद को बचाने के अधिकतम मौके मिले। फिर यह भी संदेह के घेरे में रहेगा कि जिस समूचे मामले में कई बड़ी हस्तियों के शामिल होने की आशंका थी, उसके लिए क्या अकेले ब्रजेश ठाकुर जिम्मेदार था!
गौरतलब है कि मुजफ्फरपुर और पटना में ब्रजेश ठाकुर ने अड्डे बना रखे थे, जहां वह बालिका गृह की लड़कियों को भेजता था और जो लड़कियां विरोध करती थीं, उनकी बेरहमी से पिटाई की जाती थी। सवाल है कि जिन उच्च स्तर के अधिकारियों और नेताओं के इसमें शामिल होने के आरोप सामने आए थे, क्या जांच और कार्रवाई का सिरा उन तक भी पहुंचेगा! शुरुआती जांच में ये स्पष्ट खबरें आई थीं कि वहां कुछ बच्चियों की हत्या भी कर दी गई थी, लेकिन सीबीआइ ने बाद में सुप्रीम कोर्ट में वहां बच्चियों की हत्या होने की बात से इनकार किया। पर सीबीआइ ने जिन कंकालों के मिलने की बात स्वीकार की, क्या उनकी जांच कभी की जाएगी और उन हत्याओं के लिए दोषियों को कठघरे में खड़ा किया जाएगा?
मुजफ्फरपुर के उस बालिका गृह को चलाने की इजाजत बिहार सरकार ने दी थी। वहां बच्चियों का यौन शोषण या सामूहिक बलात्कार लंबे समय से चल रहा था, लेकिन ऐसे आश्रय गृहों की समय-समय पर जांच और वहां मौजूद लड़कियों की जीवन-स्थितियों के बारे में जानकारी लेने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की अनिवार्यता की अनदेखी प्रशासन के स्तर से लगातार होती रही।ऐसा लगता है कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के अध्ययनकर्ताओं की जांच में यह घटना उजागर नहीं हुई होती तो पर्दे के पीछे सब कुछ चलता रहता। जब इस मामले का खुलासा हुआ था, तब इसके ब्योरे ने सभी संवेदनशील लोगों को दहला दिया था।
इस मामले में कार्रवाई भी तब संभव हुई, जब इसे लेकर राज्य के कुछ विपक्षी दलों ने इसे मुद्दा बनाया और एक व्यापक विरोध आंदोलन की स्थिति बनने लगी। लेकिन राज्य सरकार और पुलिस की ओर से बरती गई लापरवाही का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि घटना के सामने आने के चार महीने के बाद भी अनिवार्य कानूनी प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकी थी। आलम यह था कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को कड़ी फटकार लगाई और राज्य के मुख्य सचिव को कहा था कि इस संदर्भ में इतनी देरी से एफआइआर दर्ज करने का क्या मतलब है; आश्रय-गृह में बच्चियों के साथ जिस स्तर की यौन हिंसा हुई, उसके मुकाबले बेहद कमजोर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया, वह बेहद अमानवीय और शर्मनाक है।
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