संपादकीयः लफ्ज की नब्ज
गुजरात के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जारी किए गए अपने एक इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापन को भारतीय जनता पार्टी को बदलना पड़ा।

गुजरात के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जारी किए गए अपने एक इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापन को भारतीय जनता पार्टी को बदलना पड़ा। पार्टी के विज्ञापन में पप्पू शब्द का इस्तेमाल किया गया था। कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा इस लफ्ज का इस्तेमाल राहुल गांधी का मखौल उड़ाने के इरादे से करती आई है। इसलिए अपने चुनावी विज्ञापन में भाजपा ने यही शब्द प्रयोग किया, तो सहज ही समझा जा सकता है कि उसकी मंशा क्या रही होगी। यों भी खासकर चुनाव के दौरान राजनीतिक विरोधी एक-दूसरे का मजाक बनाने से बाज नहीं आते। लेकिन निर्वाचन आयोग को उचित ही भाजपा का यह विज्ञापन आपत्तिजनक लगा, और आदर्श आचार संहिता के तकाजे के अनुरूप उसने इस विज्ञापन पर रोक लगा दी। आयोग की कार्रवाई से दो बातें जाहिर हैं। एक तो यह कि उसने भी माना कि पप्पू शब्द किसी काल्पनिक पात्र के लिए नहीं, बल्कि कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए ही आया है। दूसरे, उसने यह भी स्वीकार किया कि इस तरह राहुल गांधी पर तंज कसा गया है।
इस विज्ञापन पर रोक लगाने की आयोग की कार्रवाई का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने एक दूसरा विज्ञापन जारी किया। बदले हुए विज्ञापन में युवराज शब्द का इस्तेमाल किया गया है। सबको मालूम है और आयोग को भी मालूम होगा कि युवराज शब्द के जरिए भाजपा राहुल गांधी पर निशाना साधती रही है। खुद मोदी अपने चुनावी भाषणों में राहुल गांधी की तरफ इशारा करने के लिए इस शब्द का प्रयोग बहुत बार कर चुके हैं। अलबत्ता बाद में राहुल गांधी के लिए युवराज के बजाय शहजादा शब्द का इस्तेमाल एक खास वजह से भाजपा को ज्यादा मुफीद लगने लगा। यह खास वजह क्या रही होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है, और अब शहजादा शब्द का इस्तेमाल भाजपा ने क्यों नहीं किया, यह भी आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन सवाल है कि भाजपा के संशोधित विज्ञापन को आयोग ने मंजूरी कैसे दे दी? पप्पू शब्द में आयोग को तंज नजर आया था, पर यह बात तो युवराज शब्द की बाबत भी कही जा सकती है। ऐसा कई बार हुआ है जब आयोग के किसी निर्णय से तर्क का तालमेल बिठाना मुश्किल हो गया। हाल ही में जब हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात के चुनाव की तारीख घोषित नहीं की गई, तो निर्वाचन आयोग को तीखे विवाद का सामना करना पड़ा।
कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दरम्यान लखनऊ के आंबेडकर मेमोरियल पार्क (डॉ भीमराव आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल) में लगी हाथी की मूर्तियों को ढंकने का आयोग का फरमान तो बहुत-से लोगों को बहुत विचित्र लगा था। चुनाव होने तक उन मूर्तियों को ढंक कर रखने के आदेश के पीछे वजह यही थी कि हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न है। लेकिन आयोग के उस आदेश के चलते हाथी और ज्यादा चर्चा का विषय बन गया था। सवाल उठाया गया था कि अगर उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हों, और सड़क पर या विवाह जैसे किसी समारोह की शोभा बढ़ाता जीवित हाथी दिखे, तो क्या उसे भी आचार संहिता के विपरीत मान कर कार्रवाई की जाएगी! बहरहाल, एक संवैधानिक संस्था के रूप में आयोग की काफी साख रही है। देश के भीतर ही नहीं, बाहर भी। इसलिए उम्मीद की जाती है कि उसके निर्णय हर तरह से सुसंगत होंगे।
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