जो सत्ता में होता है, उसकी कमियां गिनाना विपक्ष के लिए आसान होता है और उसके पास मुद्दे भी कई होते हैं। मगर सत्तापक्ष को विपक्ष की कमजोरियों पर अंगुली रखने के लिए उसी के दांव से पटखनी देने की जुगत भिड़ानी पड़ती है। दिल्ली में नगर निगम के चुनाव घोषित हो चुके हैं।
यहां मुख्य रूप से भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच चुनावी कुश्ती होनी है। भाजपा एमसीडी की बागडोर संभाले हुई है, तो आम आदमी पार्टी विधानसभा की। यानी एक तरह से दोनों सत्ता में भी हैं और विपक्ष में भी। चूंकि चुनाव नगर निगम का होना है, इसलिए आम आदमी पार्टी ने प्रमुख मुद्दा उसी के कामकाज को बनाया है। चुनाव प्रचार की शुरुआत ही आप के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कूड़े के पहाड़ से की। अब उनकी पार्टी कूड़े के मसले पर जनसंवाद करने जा रही है। दिल्ली में वर्षों से कूड़े के पहाड़ खड़े हैं, एकाध की ऊंचाई तो कुतुब मीनार से भी अधिक बताई जाती है। मगर विचित्र है कि वे इस बार के नगर निगम चुनाव में मुद्दा बन रहे हैं।
आम आदमी पार्टी के मुद्दे में सुई चुभोने के लिए भाजपा ने यमुना की गंदगी और पर्यावरण प्रदूषण को मुद्दा बना लिया है। एक कचरे के पहाड़ की बात करता है, तो दूसरा हवा में फैली गंदगी का सवाल उठा देता है। ये सारे मुद्दे आज के नहीं हैं। यह भी सब जानते हैं कि बेशक दिल्ली में इन समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों की है, पर सच्चाई यह भी है कि इनका समाधान केवल एक के वश की बात नहीं है। मगर यहां दोनों पार्टियां साल भर बस एक दूसरे के काम में टांग अड़ाने में लगी रहती हैं।
एक दूसरे के सिर ठीकरा फोड़ कर अपना कर्तव्य पूरा मान लेती रही हैं। बल्कि कई बार तो लगता है कि वे इस कोशिश में रहती हैं कि कैसे दूसरे के हिस्से की समस्या बढ़े और वे उस पर दोषारोपण कर जनता में वाहवाही लूट सकें। जब केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के कामकाज राजनीतिक नफे-नुकसान नजर से किए जाने लगते हैं, तो समस्याओं के पहाड़ इसी तरह सिर उठाते हैं। फिर राजनीतिक दल भ्रम के पहाड़ खड़ा कर लोगों को भरमाने की कोशिश करते देखे जाते हैं।
ये बातें किसी भी दल से छिपी नहीं हैं कि चाहे वह कचरे के निस्तारण में नाकामी हो, हवा में घुलते-बढ़ते जहरीले रसायनों का स्तर हो या फिर यमुना के पानी में गिरते विषैले नाले, इनका दुष्प्रभाव आखिरकार आम लोगों की सेहत पर पड़ रहा है। इन कचरे के पहाड़ों के कई किलोमीटर के दायरे में बसी बस्तियों में रहने वालों को हर वक्त कितने तरह के विषाणुओं का प्रकोप सहना पड़ता है, जहरीली हवा में सांस लेना किस कदर लोगों को मुश्किल हो चुका है, यमुना का विषैला पानी कैसे लोगों के जीवन पर दुष्प्रभाव डाल रहा है, ये बातें किसी से छिपी नहीं हैं।
इसी आबो-हवा में तमाम राजनीतिक दलों के लोगों को भी सांस लेनी पड़ती है। फिर भी मिलजुल कर इसके समाधान की कोशिश कभी नहीं की जाती। चुनाव के समय भले इन समस्याओं के जरिए वोट खींचने का प्रयास किया जा रहा है, पर चुनाव के बाद ये समस्याएं वाकई समाप्त हो जाएंगी, इसका दावा कोई नहीं कर सकता।