मगर सच्चाई यह है कि इस दिशा में गंभीरता से कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। भारत में डिब्बाबंद और तुरंता आहार खाने की आदतों के चलते बच्चों में बढ़ते मोटापे को लेकर आई ताजा रपट में कहा गया है कि अगर खानपान की यही आदतें बनी रहीं, तो अगले बारह सालों में मोटापा बढ़ने की दर लड़कों में बारह फीसद और लड़कियों में सात फीसद तक पहुंच सकती है।
इसका देश के सकल घरेलू उत्पाद पर 1.8 फीसद तक प्रभाव पड़ेगा। ऐसे देशों में कभी आर्थिक और सामाजिक खुशहाली का वातावरण नहीं बन सकता, जहां के नागरिक बीमारियों से घिरे हों और वहां की सरकारों को स्वास्थ्य के मद में अधिक खर्च करना पड़ता हो। इस दृष्टि से भारत में बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे बुरे असर को लेकर चिंता स्वाभाविक है।
इस समस्या की बड़ी वजह कारखाने में बने डिब्बाबंद और तुरंता आहार बताए जा रहे हैं, इसलिए पहली नजर में सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि इस तरह के खाद्य के चलन और उनके प्रचार-प्रसार पर नियंत्रण करें। मगर यह केवल सरकारों के प्रयास से संभव नहीं है। नागरिक सहभागिता भी जरूरी है।
अब बड़े शहरों तो क्या, छोटे कस्बों और गांवों तक में कारखानों में तैयार तुरंता आहार और पेय आसानी से उपलब्ध हैं। बच्चे स्वाभाविक रूप से उनके प्रति आकर्षित होते हैं। माता-पिता भी लाड़-प्यार या नासमझी में बच्चों को ऐसे खाद्य देने से परहेज नहीं करते। अब तो कई खाद्य इस तरह बच्चों के जीवन का हिस्सा बन चुके हैं कि माता-पिता ने भी स्वीकार कर लिया है कि हल्की-फुल्की भूख में तुरंता आहार ही विकल्प हैं।
जबसे बहुत सारी कंपनियां घर-घर सामान और खाना पहुंचाने के धंधे से जुड़ गई हैं, तबसे डिब्बाबंद खाद्य का कारोबार लगातार ऊपर की तरफ चढ़ रहा है। निस्संदेह इससे सरकारों को राजस्व की कमाई बढ़ रही है। मगर इन खाद्य पदार्थों में किस तरह के हानिकारक पदार्थ शामिल हैं, उनकी जांच का अभी तक कोई पुख्ता तंत्र नहीं विकसित हो सका है।
खाद्य अपसंस्करण नियंत्रण विभाग जरूर कभी-कभार शिकायत मिलने पर उनकी गुणवत्ता जांचने का प्रयास करता है, मगर यह नियमित प्रक्रिया नहीं है। इसी ढिलाई का नतीजा है कि स्थानीय स्तर पर भी बहुत सारे तुरंता आहार बनाने वाले कारखाने खुलते और कारोबार करते देखे जाते हैं। जबकि तुरंता आहार के कारोबार में शामिल नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक के उत्पाद की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं।
यह ठीक है कि बच्चों की खानपान की आदतें विकसित करने में माता-पिता की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, मगर जब भ्रामक विज्ञापनों और धुआंधार प्रचार-प्रसार के जरिए उपभोक्ता के दिमाग पर हमला कर यह धारणा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली गई हो कि तुरंता और डिब्बाबंद आहार बच्चों की सेहत के लिए जरूरी हैं, तो फिर कंपनियों की इस धोखाधड़ी पर नकेल कसने की जिम्मेदारी आखिरकार सरकारों पर आ जाती है।
हर साल अलग-अलग अध्ययनों में बताया जाता है कि किन-किन खाद्य पदार्थों का सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है, फिर भी प्रशासन उनके खिलाफ कोई कड़े कदम उठाता नजर नहीं आता। फिर, जब किसी चीज का बुरा असर एक बड़ी आबादी की सेहत पर पड़ रहा है, तो सरकार हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती।