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Jansatta Editorial : भाषाई विद्वेष

दक्षिण भारत में हिंदी राजनीति का एक बड़ा मुद्दा रही है।

Tamilnadu stalin
तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन। ( फोटो-इंडियन एक्‍सप्रेस)।

यह मुद्दा जब-तब सिर उठाता देखा जाता है। ताजा मामला तमिलनाडु में दही के पैकेट पर प्रमुखता से ‘दही’ लिखे जाने के निर्देश को लेकर उठा है। वहां के मुख्यमंत्री ने अपने ट्विटर पर लिखा है कि इस तरह हमारे ऊपर हिंदी थोपने का प्रयास किया जा रहा है।

दरअसल, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने कर्नाटक मिल्क फेडरेशन को निर्देश दिया है कि दही के पैकेट पर प्रमुखता से ‘दही’ मुद्रित किया जाए। इसी को लेकर विवाद छिड़ गया है। अब सुझाव आए हैं कि तमिल में दही के पर्यायवाची को कोष्ठक में लिखा जाना चाहिए। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है।

मगर मुख्यमंत्री के ट्वीट से एक बार फिर हिंदी और दक्षिण की भाषाओं के बीच विद्वेष की चिंगारी फूट पड़ी है। हालांकि हिंदी को लेकर दक्षिण में अस्वीकार की भावना को शांत या सहज करने की कोशिशें बहुत हो चुकी हैं, खूब सारे तर्क दिए जा चुके हैं, मगर जो लोग इसे सियासी रंग दिए रखना चाहते हैं, उनके सामने सारे तर्क बेमानी हो जाते हैं। ताजा विवाद भी उसी राजनीतिक नजरिए का नतीजा है।

अब दुनिया जिस तरह संकुचित हो चुकी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कारोबार आदि वजहों से लोगों की देश के विभिन्न हिस्सों में आवाजाही बढ़ी है। महानगरों में बड़े पैमाने पर दूसरे प्रांतों के लोग जाकर बसने लगे हैं, बस गए हैं, उसमें भाषा संबंधी ऐसी संकीर्णता मायने नहीं रखती। वैसे भी जहां तक हिंदी की बात है, बेशक उसे राष्ट्रभाषा के तौर पर देश के सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य न बना दिया गया हो, पर इस हकीकत से आंख नहीं चुराई जा सकती कि हिंदी के बिना भारत में काम नहीं चल सकता।

कोई भी कारोबारी अब यह नहीं कह सकता कि वह केवल अपनी मातृभाषा में कारोबार करेगा, हिंदी का सहारा बिल्कुल नहीं लेगा। पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग भी ऐसी जिद नहीं पाल सकते। पालते भी नहीं। दक्षिण के राज्यों में हिंदीभाषी लोग बड़ी सहजता से अपनी भाषा में बात रख लेते हैं, वहां के लोग उनकी बात समझ भी लेते हैं। इस सच्चाई से वहां के राजनेता और प्रशासक भी अपरिचित नहीं। फिर यह समझना मुश्किल है कि वे ऐसे भाषा-विद्वेष को जिंदा ही क्यों रखना चाहते हैं।

यह ठीक है कि कोई भी भाषा अपनी संस्कृति की वाहक और संरक्षक होती है, उसे विकृत करने की कोशिशों का विरोध होना ही चाहिए। मगर भाषाई खुलेपन की वजह से अगर कारोबारी विस्तार हो रहा हो, तो ऐसी जिद भी नहीं पाली जानी चाहिए। फिर भाषाएं चुपके से अपनी सहवर्ती भाषाओं से न जाने कितने शब्द, मुहावरे, प्रतिमान ग्रहण कर अपने को समृद्ध करती रहती हैं, उनके इस सहज स्वभाव में राजनीतिक अवरोध भी क्यों पैदा किया जाना चाहिए।

भारतीय भाषाओं के बीच जितना विपुल अनुवाद होता है, उतना दुनिया की किन्हीं और भाषाओं के बीच नहीं होता। इस तरह बहुत सारे शब्दों का एक-दूसरे में समावेश होता चलता है। स्वाभाविक ही इससे भारतीय संस्कृति की एकसूत्रता मजबूत होती है। फिर इस बात को लेकर झगड़ा ही क्यों होना चाहिए कि किस भाषा में दूध, दही या किसी और वस्तु को क्या कहते हैं। बहुत सारे उत्पादों के नाम विदेशी भाषाओं से लिए गए हैं, मगर इससे तो कभी किसी ने ऐसा महसूस नहीं किया कि उस भाषा की संस्कृति हमारे ऊपर थोप दी गई है।

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First published on: 31-03-2023 at 00:30 IST
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