कुछ काम-धंधे ऐसे होते हैं, जिनमें हर वक्त हादसे की आशंका बनी रहती है। इसलिए उनमें सतर्कता और सुरक्षा संबंधी उपायों का गंभीरता से पालन ही सबसे कारगर तरीका माना जाता है। मगर हमारे देश में औद्योगिक सुरक्षा संबंधी नियम-कायदों को किस तरह ताक पर रख कर बहुत सारे कल-कारखाने चल रहे हैं, यह छिपी बात नहीं है। इनकी मनमानियों पर नजर रखने वाले अमले आंखें बंद किए रहते हैं। उनकी आंखें तब खुलती हैं, जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है। तब कुछ दिन की सतर्कता और नियम-कायदों के पालन में बरती जाने वाली लापरवाहियों के खिलाफ कड़े कदम उठाने का दम भरने के साथ फिर से आंखें बंद कर ली जाती हैं।
जरूरी सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जाता है
इसी का नतीजा है कि कल-कारखानों में हादसों और उनमें काम करने वाले मजदूरों की मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। तमिलनाडु के कांचीपुरम में एक पटाखा कारखाने में लगी आग में नौ मजदूरों के मारे जाने और बारह के गंभीर रूप से घायल हो जाने की घटना उसी की एक कड़ी है। इस तथ्य से कोई अनजान नहीं कि पटाखों के निर्माण में अतिज्वलनशील पदार्थों का इस्तेमाल होता है, उनके कारखानों में लापरवाही की मामूली चिनगारी भी भयावह रूप ले सकती है। फिर भी ऐसे हादसे हो जाते हैं, तो जाहिर है कि उनमें जरूरी सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जाता।
कारखाना मालिक लाइसेंस लेने के बाद बेफिक्र हो जाते हैं
हर घटना के बाद यह सवाल उठता है कि आखिर सरकारें पटाखा बनाने वाले कारखानों में मजदूरों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने में कैसे विफल हैं। दक्षिण भारत में पटाखे का निर्माण बड़े पैमाने पर होता है। इनमें ज्यादातर काम मजदूर हाथ से करते हैं। पटाखे बनाने से लेकर उनके भंडारण तक। इस काम के लिए उन्होंने कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया होता है। इसी का लाभ अक्सर कारखाना मालिक उठाते हैं। हालांकि पटाखे बनाने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता है, उससे संबंधित नियम-कायदे बहुत सख्त हैं।
हादसों में मरने वालों के लिए मुआवजे का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं
फिर भी कारखाना मालिक सुरक्षा मानकों की अनदेखी करने से बाज नहीं आते। फिर जो कारखाने चोरी-छिपे चलाए जाते हैं, उनसे भला नियम-कायदों के पालन की कितनी उम्मीद की जा सकती है। औद्योगिक हादसों पर लगाम न लग पाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि उनमें मारे जाने वाले लोगों के लिए मुआवजे का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। दूसरे देशों में औद्योगिक हादसों पर इतना कड़ा जुर्माना है कि हर कारखाना मालिक उससे बचने के उपाय करता है।
हमारे यहां अक्सर हादसे के बाद प्रशासन खुद कारखाना मालिक और मारे गए मजदूरों के परिजनों के बीच समझौता करा कर कुछ मुआवजा दिला देता है। बड़ा हादसा होता है, तो कई बार सरकारें भी कुछ मुआवजा दे देती हैं। मगर वह राशि इतनी कम होती है कि उस परिवार का कुछ साल भी गुजारा चलना मुश्किल होता है। इसके चलते कारखाना मालिकों को हादसों का कोई खौफ नहीं रहता। यह केवल पटाखा निर्माण तक सीमित नहीं है, तमाम ऐसे कारखानों में उच्च ताप-दाब पर चलने वाले बायलर तक अप्रशिक्षित मजदूरों के भरोसे चलाए जाते हैं।
इसका नतीजा कई बार उनके फटने से मजदूरों के घायल होने और मारे जाने के रूप में निकलता है। प्लास्टिक आदि के कारखाने भी हमेशा आग के मुहाने पर रहते हैं। ऐसे में जब तक सरकारें औद्योगिक हादसों को लेकर भारी आर्थिक दंड और मुआवजे का प्रावधान नहीं करतीं, तब तक इन पर लगाम लगने का दावा नहीं किया जा सकता।